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अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ
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'शिकार होते हैं । मक्खियों के काटने से यह रोग फैलता है ऐसा कहा जा सकता है पर वह प्रमाण रहित और असंगत बतलाया गया है ।
कालस्फोटदण्डाणु सुषवाधान्य दण्डाणु है यह शरीर के बाहर बड़े प्रतिरोधक शक्तिसम्पन्न बीजाणु बनाने में निपुण है । इसी से ऊन या खालों में तथा बालों के ब्रशों से यह रोग सदैव हो सकता है यदि वे उपसृष्ट हैं ।
इस रोग का विक्षत एक दुष्ट उत्पूय ( malignant pustule ) होता है । यह अनावृत अंगों ( मुख, हाथ आदि ) में एक फुंसी के रूप में निकलता है। यह फुंसी शीघ्र ही एक उद्भविका ( vesicle ) में परिणत हो जाती है। इस उद्भविका में स्वच्छ तरल भरा होता है जो कभी रक्त के कारण लाल भी हो सकता है। इसमें असंख्य कालस्फोटी दण्डाणु पाये जाते हैं। इसी द्रव से दण्डाणु की परीक्षा करके रोग निदान किया जाता है ।
जब यह उद्भविका फूट जाती है तो एक काले वर्ण की व्रणवस्तु बन जाती है जिसके चारों ओर पुनः अनेक उद्भविका बन जाती हैं साथ ही मांसवर्णीय काठिन्य उत्पन्न हो जाता है ।
rudra चित्र तीव्र व्रणशोथ का होता है ।
किसी भी समय दण्डाणु रक्त में प्रवेश कर जाते हैं और कालस्फोटदण्डाणुरक्तता ( anthrax septicaemia ) उत्पन्न कर देते हैं जिसका प्रभाव शरीर के सभी अंगों पर पड़ सकता है । यह जीवाणुरक्तता अनेक अनुहृष्ट जीवों ( मूषक, वंटमूषक ) में देखी जाती है । श्वचा के विक्षत मृत्युकारक नहीं होते परन्तु जीवाणुरक्तता अवश्य घातक होती है ।
यह हमने कहा है कि जीवों के शरीर में यह दण्डाणु बोजाणु ( spores ) बनाने में असमर्थ होता है | अतः कसाई खानों में जहाँ पशु कटते हैं वहाँ यदि इस रोग से पीडित पशु का रक्त गिर गया तो भूमि पर असंख्य बीजाणु बन जावेंगे जो निरन्तर खालों और पशुओं को पीडित करते रहेंगे ।
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