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विकृतिविज्ञान अर्बुद का अपने समीप के अंगों के साथ सम्बन्ध प्रत्येक अवस्था में बदलता रहता है। कहीं वह परिलिखित (circumscribed ) होता है और वह पास के अंग को विच्युत करता तथा दबाता रहता है। इस पीडन के कारण उनकी अपुष्टि हो जाती है और उनका स्थान तान्तवति ले लेती है। इसके कारण अर्बुद के चारों ओर एक तान्तव प्रावर बन जाता है। इस प्रकार साधारण अर्बुद का परिप्रावरण ( encapsulation) हो जाता है। अर्बुद किस प्रकार कभी-कभी अपने चारों ओर एक प्रावर ( capsule ) बना लेता है उसे हमने यहाँ बतलाया है।
कुछ अर्बुदों की वृद्धि प्रसर (diffuse ) होती है वे समीपस्थ ऊतियों में प्रविष्ट हो जाते हैं। इस अवस्था में अर्बुद और उसके समीप के अंग इन दोनों के मध्य में विभेदक रेखा नहीं खींची जा सकती है। आँख से देखने पर हो सकता है कि एक अर्बुद पृथक दिखाई दे पर अण्वीक्ष के नीचे अर्बुदिक पदार्थ की भरमार समीपस्थ अति में भी पर्याप्त मिलती है। इनके कारण अर्बुद की बहीरेखा एक सार नहीं जाकर टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है। ऐसे अर्बुद प्रायः दुष्ट या चण्ड होते हैं। उनकी आक्रामक शक्ति उनकी वृद्धि के तीव्र वेग तथा समीपस्थ अंगों को नष्ट करने की योग्यता पर निर्भर करती है।
एक ही रोगी के शरीर में एक से अधिक प्रकार के अर्बुद भी एक साथ रह सकते हैं तथा यह आवश्यक नहीं कि दो एक से अर्बुद शरीर में दो स्थानों पर एक ही कारण से बने हों।
प्रतीपगामी परिवर्तन अर्बुद स्वतः कभी लुप्त नहीं हुआ करता जिस प्रकार व्रणशोथात्मक अति से बना हुआ उत्सेध या फिरंगार्बुद स्वतः लुप्त हो जाता है । शीघ्र या विलम्ब से अर्बुद में अतिनाश या विद्वास होता हुआ देखा जा सकता है। अर्बुद जितने शीघ्र बढ़ता है, नवऊति उतनी ही कम विभिनित होती है तथा उतना ही कम उसमें स्थायित्व होता है और उसी अनुपात में ही उसमें विहासात्मक परिवर्तन अधिक देखे जाते हैं। बात यह है कि जो अर्बुद शीघ्र बढ़ते हैं वे स्वतन्त्रतया रक्तपूर्ति चाहते हैं परन्तु रक्तवाहिनियाँ पूर्वज प्रकार की होती हैं जिससे उनमें होकर उतना रक्त आ नहीं पाता। यदि आता भी है तो उनकी प्राचीर टूट-फूट जाती है या उनके भीतर घनास्रोत्कर्ष हो जाता है। यही कारण है कि अनेक कर्कटार्बुद (कैंसर) एवं संकटाबंद (सार्कोमा) जितने शीघ्र बढ़ते हैं उतनी ही शीघ्रतापूर्वक विहृष्ट भी हो जाते हैं। इसके विपरीत साधारण अर्बुद शनैः शनैः उत्पन्न होते हैं जिसके कारण उनकी रक्तवाहिनियाँ ठीक-ठीक बनती हैं उनके अन्दर उच्च समङ्गित ऊति ( highly organised tissue) रहती है जिसके कारण वे चिरकाल तक स्थिर रहते हैं।
प्रतीपगामी परिवर्तन जैसे अन्य स्वाभाविक ऊतियों में देखने में आते हैं वैसे ही होते हैं । अर्थात् निम्न परिवर्तन मिल सकते हैं:
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