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अर्बुद प्रकरण
६६३ ७. व्रणशोथात्मक ऊतिवृद्धि (inflammatory new growth) और अर्बुद में यह भेद है कि पहली का आदि कारण प्रक्षोभ होता है, वह कुछ काल तक रहकर स्वयं प्रचूषित हो जाती है अथवा तान्तवऊति या तन्तूत्कर्ष को जन्म देती है। जब कि अर्बुद का प्रारम्भ न किसी प्रक्षोभ से होता है न वह प्रचूषित होता है और उसका अन्तिम परिणाम तन्तूत्कर्ष ही देखा जाता है।
८. किसी अति के स्वाभाविक कोशाओं और उसी ऊति के अर्बुदीय कोशाओं में कुछ मौलिक भेद भी देखा जाता है। जहाँ स्वाभाविक कोशाओं में कोशा की वृद्धि और उसकी क्रिया दोनों एक दूसरे के समानुपात से चलती हैं वहाँ अर्बुद के कोशाओं की वृद्धि अत्यधिक और क्रिया या तो बिल्कुल नहीं होती अथवा होती भी है तो जैसा कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के अर्बुदों में देखा जाता है वह पूर्णतः अस्वाभाविक ( abnormal) होती है।
९-ऐसा ज्ञात होता है कि शरीर के किसी अंग की वृद्धि एक मर्यादा तक होकर फिर वह नियन्त्रित हो जाती है तथा अर्बुदीय कोशाओं की वृद्धि होते समय वह नियन्त्रण समाप्त हो जाता है।
१०-अर्बुद की उत्पत्ति एक कोशा से भी हो सकती है और कई कोशाओं के समूह द्वारा भी हो सकती है। यह अधिच्छदीय अथवा संयोजी किसी भी प्रकार की ऊतियों में देखा जा सकता है।
वि-विभिन्नन शरीरस्थ किसी भी उति के ३ पहल हुआ करते हैं जिनमें पहला कोशीय, दूसरा रचनात्मक और तीसरा चयापचयिक। अर्बुद जिस उति में बनता है उस ऊति के इन तीनों पहलुओं में अपचयन देखा जाता है। यह अपचयन ( degradation ) प्रत्येक अर्बुद में पाया जाता है। किसी के किसी पहलू में अधिक अपचयन होता है और अन्य पहलुओं में कम । परन्तु होता अवश्य है। साथ ही, यह अपचयन जितना ही अधिक होता है उतनी ही उसकी चण्डता या मारात्मकता (malignancy)अधिक मानी जाती है। इस अपचयन को वि-विभिन्नन (de-differentiation) भी कह कर पुकारा जाता है।
जिन अर्बुदों में वि-विभिन्मन कम होता है जिसके कारण उनके कोशीय और रचनात्मक ( organoid ) पहलू प्रकृत ऊति के सदृश ही रहते हैं, वे शनैः शनैः बढ़ते हैं, उनमें शीघ्र फैलने की प्रवृत्ति भी नहीं मिलती इस कारण वे जिस ऊति में बनते हैं उसी से पूर्णतः समता रखते हैं केवल ऊति द्वारा सम्पादित क्रिया से अपने को पृथक् रखते हैं। ऐसे अर्बुद मृदु या सौम्य अथवा साधारण ( benign or simple ) अर्बुद कहे जाते हैं। ये सौम्य इसी लिए हैं कि इनके द्वारा जीवन को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचती।
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