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विकृतिविज्ञान
यन्त्रद्वार ( glottis ) भी प्रभावित हो जाते हैं जिसके कारण वे कड़े और तंग भी हो जा सकते हैं। ऐसे ही परिवर्तन बाह्य कर्णसुरंगाओं में भी मिल सकते हैं ।
यह रोग सर्वाङ्गीण नहीं बनता इस कारण साधारण स्वास्थ्य पर कोई विशेष प्रभाव नहीं देखा जाता। यदि रोग का उपचार न किया जावे तो भी यह शीघ्रतापूर्वक प्रसारित नहीं होता इसका प्रसार शनैः शनैः होता है तथा होता लगातार है ।
नासारंधों के पास जो पुञ्ज देखे जाते हैं वे परमपुष्ट व्रणवस्तु ( hypertrophic Scars ) के सदृश लगते हैं । वे रंग में हलके या गहरे आबभ्रु लाल होते हैं । वे कहीं-कहीं विदारपूर्ण ( fissured ) और कहीं-कहीं मसृण होते हैं । उनके समीप की त्वचा पूर्णतः स्वाभाविक होती है । उनमें व्रणन की प्रवृत्ति अत्यल्प होती है ।
अण्वीक्षण पर त्वचा ( corium) में क्षुद्र गोलकोशाओं की सघन भरमार मिलती है ये कोशा तन्वीय संघार ( fibrillated stroma ) में भरे रहते हैं । अनेक कोशा aaiकारी होते हैं । कुछ अधिच्छदाभ भी होते हैं । वृद्धि के साथ वाहिन्यता (vascularity ) साधारण रहती है और स्नैहिक विहास की प्रवृत्ति नहीं मिलती । ऊतियों में काचरपुअ भी मिल सकते हैं ( कौर्निल ) ।
लसकणार्बुद या हौ किनामय
हौज किन ने १८३२ ई० में लसग्रन्थियों की वृद्धि के ७ रुग्णों का वर्णन किया था। यह रोग निश्चित रूप से मारक है । यह अस्थिमज्जा, लसग्रन्थियों, प्लीहा और यकृत् पर प्रभाव करता है । ये सभी अंग जालकान्तश्छदीय संस्थान के अन्तर्गत आते हैं । इस कारण हम इस रोग का वर्णन विस्तृत रूप से उसी प्रकरण में करेंगे ।
इस रोग का कारण क्या है यह ज्ञात न होने से ४ मत विशेष कर आजकल चल रहे हैं । एक मत इसे विशिष्ट औपसर्गिक कणार्बुद बतलाता है । विशिष्ट औपसर्गिक कणार्बुद होने के लिए पहली बात तो यह है कि उसका औतिकीय चित्र अन्य वि० औ० क० से मिलता-जुलता हो दूसरे उसमें विशिष्ट जीवाणु पाया जावे तथा तीसरे उस जीवाणु के द्वारा रोग अन्य को पहुँचाया जा सके। इन तीन परीक्षाओं में केवल औतिकीय चित्र तो इस रोग का वि० औ० क० सरीखा ही है परन्तु अन्य परीक्षण पर इसका कर्त्ता कोई भी जीवाणु नहीं मिलता इससे इसके औपसर्गिक कणार्बुद होने में सन्देह है ।
दूसरा मत यह कहता है कि यह रोग यक्ष्मा का ही एक रूप है पर यह नितान्त असत्य है । इस रोग के साथ-साथ यक्ष्मा भी देखी जा सकती है पर यह यक्ष्माजन्य हो ऐसे प्रमाण अनुपलब्ध हैं ।
तीसरा मत इसे अर्बुद मानना चाहता है । तथा चौथा मत इसे अर्बुद या कणार्बुद के मध्य में ठहराता है । ये दोनों मत भी वास्तविकता को व्यक्त करने में असमर्थ हैं ।
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इस रोग में रक्तोत्पादक संस्थान के अंगों की जीर्णरूप से वृद्धि होने लगती है
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