________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ
६१३
शरीर पर नये उत्कोठ निकलते हैं और स्फोट ( blisters ) भी बन जा सकते हैं । दौरे के कारण शरीर में प्रतिकारिता शक्ति जाग पड़ती है जिसके कारण कुष्ठ की गाँठें नष्ट हो जाती हैं और ऐसा लगता है कि मानो अब रोग पूर्णतः चला गया । पर किसी भी कारण से जब यह प्रतिकारिताशक्ति घट जाती है तब रोगी को पुनः दौरे होने लगते हैं और कुष्ठ अपनी प्रगति करता चला जाता है ।
महाकुष्ठ का विकृत शारीर
महाकुष्ठ या गलत्कुष्ट या लैप्रसी के २ मुख्य रूप देखने में आते हैं: १. ग्रन्थिकीय कुष्ठ ( nodular leprosy ) । २. निश्चेत कुष्ठ ( anaesthetic leprosy ) ।
ये दोनों रूप भी बहुत मिश्रित कुष्ट को स्वकुष्ट और निश्वेत कुष्ठ को के ठीक ठीक बनने में पाँच वर्ष तक समय समय पर त्वचा में उत्कोठ होते हुए दिख जाया करते हैं ।
या संयुक्त होते हुए देखे जाते हैं । ग्रन्थिकीय नाडीकुष्ठ भी कहा जाता है । कुष्ठ के इन रूपों का समय लग जाया करता है । इस काल में
जीवाणु त्वचा के
I
1
ग्रन्थिकीय कुष्ठ - कुष्ठ का यह रूप तब होता है जब कुष्ठकारी नीचे भरमार करता है और त्वचा में ग्रन्थिकाएँ या गाँठें बना देता है । ये गाँठें मुखमण्डल और बाहुपादों पर बहुत होती हैं वैसे ये सम्पूर्ण शरीर में निकल सकती हैं । ये ग्रन्थिकाएँ चिपटी और छोटी होती हैं । शनैः शनैः उनका विकास होता है तथा कई कई एक स्थान पर दूसरे से मिल जाती हैं तब उनका आकार काफी बड़ा हो जाता है । प्रभावित त्वचा प्रारम्भ में पर्याप्त दृढ़ तथा लाल या बभ्रु वर्ण की होती है जो आगे चलकर मृदु तथा पाण्डुर हो जाती है । यह रोगग्रस्त त्वचा स्वतः व्रणीभूत नहीं होती । इसका व्रणन बहुत कालोपरान्त या तो हो जाता है अथवा उस पर आघात पड़ने से प्रारम्भ हो जाता है। जब व्रण बन जाते हैं तो वे अंगनाश खूब करते हैं । इस कुष्ठीय अंगनाश को लेप्राम्यूटीलेन्स कहा जाता है । ग्रंथिकाएँ चेहरे से अन्य भागों में भी जाती हैं जैसे बाहु या पादों के विकासी तल ( extensor surfaces of extremities ) तथा नेत्र, नासा, मुख तथा स्वरयन्त्र की श्लेष्मलकला । इस रोग से नासाकोटरों की अस्थियाँ प्रभावित नहीं होतीं जैसा कि फिरंग रोग में देखा जाता है ।
निश्चेत कुष्ठ - कुष्ट के इस रूप में रम्भाकार या तर्कुरूप सूजन वातनाडियों पर इतस्ततः देखी जाती है जो मध्यबाहुका अन्तर्बाहुका तथा पश्चिम जङ्घिका आदि नाडियों पर अधिक प्रभाव करती है । इसके कारण नाडीपाक हो जाता है । परिणाही नाडियों के कंचुकों में भी प्रभाव होता है । नाडीकंचुकों ( nerve sheaths ) के नीचे कुष्ठकारी जीवाणु की भरमार के स्वरूप यह सब होता है। इस भरमार के कारण नाडीतन्तु प्रक्षुब्ध हो जाते हैं और फिर उनमें विह्रास उत्पन्न हो जाता है । वातनाडियों का बहुत सा भाग सूज जाता है । वातनाडियों में भी जो त्वचा की ओर
For Private and Personal Use Only