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विकृतिविज्ञान जब कुष्ठ की जीर्ण व्रणशोथात्मक प्रक्रिया चल पड़ती है तो उद्भेदन या स्फोट निकलने के पश्चात् सर्वप्रथम सूक्ष्मरक्तवहनाडियाँ प्रभावित होती हैं। कुष्ठ के जीवाणु वहाँ स्थित होकर परिवाहिनीय भरमार करने लगते हैं। प्रारम्भ में जब व्रणशोथ अपनी तीवावस्था में रहता है तब लस्य उत्स्यन्द ( serous exudation ) होता हुआ देखा जाता है। आगे चलकर जीर्णावस्था में वही कणीय ऊतियों में परिणत हो जाता है । यह रोग की प्रगति प्रत्येक कुष्ठी में भिन्न भिन्न होती है। जितनी जिस रोग में प्रतिकारिता शक्ति होती है उसी अनुपात में रोग की गति कम या अधिक उसके शरीर में देखी जाती है।
विस्फोट, उद्भेद, ग्रन्थिकाएँ, व्रणन, नाडी के पोषणिक परिवर्तन ये सभी जीर्ण वैषिक प्रक्रिया ( chronic toxic process ) के कारण देखे जाते हैं। ऊतियों का मृद्वन तथा नाश एवं वणन यह सब कुष्ठ के दण्डाणु ही करते हैं पर जब वे यह सब कर चुकते हैं तो उन व्रणों पर अन्य जीवाणु अपना आसन जमा कर रोग को बहुत अधिक बढ़ा देते हैं और उसको गम्भीर कर देते हैं।
__ यदि एक कुष्ठ ग्रन्थि को काटा जावे तो उसके उपरिष्ठ कोशा यथावत् मिलते हैं परन्तु गम्भीर कोशाओं का स्वरूप एक कणार्बुद के समान होता है जिसमें अनेक गोल कोशा मिलते हैं, बहुत से प्ररस कोशा तथा अन्तश्छदीय कोशा पाये जाते हैं कुष्ठकोशा तन्तुरुह तथा बहुत सी तान्तव ऊति मिलती है जो रक्तवाहिनियों को साधे रहती है। इन रक्तवाहिनियों के परिवाहिनीय क्षेत्र में कुष्ठदण्डाणुओं की भरमार रहती है।
कुष्ठ के कणार्बुद को हम कुष्ठार्बुद ( leproma. ) नाम भी दे सकते हैं। यह कुष्ठाबुंद वातनाडियों में, आभ्यन्तरिक अंगों में, तथा त्वचा में कहीं भी हो सकता है। इसमें सदैव महाकोशा तथा नष्ट हुई ऊतियाँ मिला करती हैं। इन कुष्ठार्बुदों में कुष्ट के दण्डाणु पर्याप्त संख्या में मिलते हैं वे रक्त वाहिनियों से समृद्ध होते हैं तथा ये कुष्टदण्डाणु ही अतियों की वृद्धि करके उन्हें इतस्ततः फुला देते हैं। त्वचा में महाकोशाओं की उपस्थिति देख कर फुफ्फुस की भाँति यक्ष्मा का सन्देह हो जाता है। यकृत्प्लीहोदर जीर्ण कुष्ठी में साधारणतः देखा ही जाता है। काटने पर उनमें अनेक आश्वेत ग्रन्थिकाएँ इतस्ततः विकीर्ण दिखलाई देती हैं। ये ग्रन्थिका अण्वीक्षण पर कुष्ठ कोशा सिद्ध होते हैं । वृक्कों पर कुष्ठ का सदैव प्रभाव पड़ता है जिसके कारण गम्भीरावस्था में वे पूर्णतः अपुष्ट देखे जाते हैं । वृक्कों की अपुष्टि कुष्टी की मृत्यु का कारण हो सकती है।
कवकरोग
(Mycoses ) शाकाणुओं ( bacteria) से ऊँचे वर्ग में किण्व, सूक्ष्मकवक ( moulds ) तथा कवक ( fungus ) आते हैं। इनके द्वारा जो रोग उत्पन्न होते हैं वे सब कवक रोग कहलाते हैं । इन कवक रोगों में निम्न प्रसिद्ध हैं:
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