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फिरक
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तर्कुरूप सिराजग्रन्थियाँ स्यूनाकार ग्रंथियों की अपेक्षा कम हुआ करती हैं। इनका मुख्य स्थान आरोही तोरण ( ascending arch ) का प्रथम भाग तथा महाधमनी वलय ( aortic ring ) हुआ करता है । वलय में सिराजग्रंथि के कारण महाधमनीक प्रतिप्रवाहण ( aortic regurgitation ) हो जाता है । इसका कारण है महाधमनी के एक भाग की सम्पूर्ण लम्बाई में प्रसर आतति ( diffuse distension ) या फैलाव हो जाता है जो प्रसरमहाधमनी मध्यमचोल पाक के कारण होता है । यह ग्रन्थि एक तfकारी सूजन के रूप में देख पड़ती है और इसमें भी स्तरीयित आतंचित रक्त मिल सकता है । ऐसी ग्रन्थियों की प्राचीरें प्रायः अपरदित हो जाया करती हैं जिसके कारण व्यावसिराजग्रन्थि ( leaking aneurysen ) उत्पन्न होते हैं जिनसे रक्त परिहृत्स्यून ( pericardial sac ) में चू जाता है । तोरण के अनुप्रस्थ और अवरोही भाग में तर्कुरूप ग्रन्थियाँ बहुत कम देखने में आती हैं ।
महाधमनीक ग्रन्थियों का विदार ( rupture ) शनैः शनैः वा द्रुतगति से होता है यह अतिशीघ्र मारक होता है । यह किसी भी अंग में हो सकता है । यथा जब यह अन्नप्रणाली में होता है तो रक्तवमन ( haemetemesis ) और जब श्वासप्रणाली में होता है तो रक्तष्ठीवन ( haemoptysis ), फुफ्फुसान्तराल में होने पर शोणोरस् ( haemothorax ) तथा परिहृच्छद में होने पर शोणपरिहृच्छद (haemopericardium) कहलाता है ।
( ४ )
लसग्रन्थियों पर फिरंग का प्रभाव
फिरंग के द्वारा लसग्रन्थियाँ फूल जाती हैं तथा वेदनारहित रहती हैं इसे हम पहले कह चुके हैं। इन दो लक्षणों के द्वारा तथा फिरंग के अन्य शारीरिक चिह्नों द्वारा बहुत सरलतापूर्वक फिरंग का सापेक्षनिदान किया जाया करता है । बाह्यफिरंग (प्रथमावस्था ) में उपसर्गग्रस्त क्षेत्र को सींचने वाले लसग्रन्थक कठिन, दृढ तथा शूलरहित मिलते हैं। वंक्षणप्रदेशस्थ लसप्रन्थियाँ प्रायः करके सूजती हैं । पर भगचुम्बनादि के कारण जब संदेश ओष्ठ पर बनता है तो अधोहनु की ग्रन्थियाँ ( submental glands ) फूल जाती हैं । द्वितीयावस्था या आभ्यन्तर फिरंग में सम्पूर्ण शरीर की सग्रन्थियों में वृद्धि होती है पर यह वृद्धि बहुत अधिक नहीं होती जिसके कारण कुछ विशेष प्रकट नहीं होता । बहिरन्तर्भवफिरंग (तृतीयावस्था ) में लसग्रन्थियों में फिरंगार्बुद बन सकते हैं पर वे देखे बहुत ही कम जाते हैं अण्वी चित्र कोई खास नहीं होता है । अन्य फिरंगिक विक्षतों की तरह यहाँ भी अन्तश्छदीय कोशाओं का प्रगुणन, लसीकोशाओं तथा प्ररसकोशाओं की वृद्धि देखी जाती है । बाह्य और आभ्यन्तर फिरंग में सुकुन्तलाणु प्रचुर परिमाण में मिलते हैं तृतीयावस्था में नहीं मिलते या बहुत कम मिलते हैं ।
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