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फिरङ्ग
६२१ (१९)
गर्भाशय पर फिरंग का प्रभाव गर्भाशयपिण्ड की फिरंग जितनी कम मिलती है उतनी ही गर्भाशयग्रीवा की फिरंग मिलती है। गर्भाशयग्रीवा पर प्रथम संदेश भी मिल सकता है। आभ्यन्तर फिरंग के उत्कण ( papules ), आईसिध्म अथवा वणन कुछ भी उसके द्वार (os ) पर या उसकी सुरंग ( canal ) में मिल सकते हैं। बहिरन्तर्भवफिरंग में द्वार के अग्र या पश्वभाग में फिरंगार्बुदीय व्रण बन सकते हैं।
(२०) वातनाडीसंस्थान पर फिरंग का प्रभाव फिरंगिक उपसर्ग का सर्वाधिक प्रभाव दो ही संस्थानों पर विशेषतया पड़ता है जिनमें एक वाहिन्य संस्थान ( vascular system ) है तथा दूसरा जिसका वर्णन अब हम करने वाले हैं वह वातनाडीसंस्थान है। वातनाडीसंस्थान पर यद्यपि आभ्यन्तर फिरंगावस्था में ही जब सम्पूर्ण शरीर में फिरंग का विष व्याप्त होता है तभी फिरंग का उपसर्ग लग जाता है परन्तु फिरंग का वास्तविक प्रभाव बहिरन्तर्भव फिरंग (फिरंग की तृतीय और चतुर्थ दोनों अवस्थाओं) में ही देखने में आता है । मस्तिष्कसुषुम्नाजल ( मस्तिष्कोद) एक दर्पण ( mirror ) के समान है जिसमें फिरंग की छाया बड़ी आसानी से ऑकी जा सकती है। मस्तिष्कोद के परिवर्तन तो बाह्य फिरंगावस्था में भी मिलते हैं। वाइल और स्टोक्स के अध्ययन का वर्णन करते हुए व्यायड लिखता है कि उन्होंने बाह्यफिरंग के ६ रुग्ण देखे और उनके मस्तिकोद की परीक्षा की। परीक्षण का परिणाम यह निकला कि उनमें से ४ का मस्तिकोद आस्वाभाविक था यहाँ तक कि एक के मस्तिष्कोद में कोशा गणना २०० मिली मस्तिष्कोद में सुकुन्तलाणुओं की उपस्थिति आभ्यन्तर फिरंग (द्वितीयावस्था) में मिल जाती है। उसे प्राणियों में प्रवेश करके या अण्वीक्षण पर स्वयं पहचाना जा सकता है। कुछ रोगियों में कुछ वातरोग के लक्षण भी मिल सकते हैं जब कि अन्यों में ये लक्षण बिल्कुल नहीं मिलते।
सन् १९१३ई० में अन्ताराष्ट्रिय चिकित्सक संघ की बैठक में नीसर ने कहा था कि किसी को भी फिरंग से मुक्त कह कर तब तक नहीं छोड़ देना चाहिए जब तक कि उसके मस्तिष्कसुषुम्नाजल का परीक्षण करके उसे पूर्णतया स्वाभाविक न पा लिया जावे । अर्थात् मस्तिष्कोद फिरंगोपसर्ग के कारण बहुधा अनृजु रहता है और वातनाडी संस्थानजन्य फिरंग का कारण बनता है। _ वातनाडीगत फिरंग के सम्बन्ध में दो बातें आजकल विशेष तौर कहो जाती हैं। एक तो यह कि यह रोग कुलचा प्रवृत्ति वाला है अर्थात् कुछ विशेष परिवारों को जितना
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