________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
फिरङ्ग तान की कमी के कारण सक्थि-सविनयों को किसी भी असाधारण स्थिति में रखा जा सकता है।
शीर्षण्या नाडीय विकार-संवेदनात्मक या संचालनात्मक किसी भी प्रकार का विकार शीर्षण्या नाडियों के विकार के कारण हुआ करता है। दृष्टिनाडी की प्राथमिक अपुष्टि के कारण रोगी अन्धा हो सकता है। यह दृष्टिनाडी का विक्षत ठीक वैसा ही होता है जैसा कि विक्षत इस रोग में सुषुम्ना के पश्चनाडी मूलों को प्रभावित करता है। अन्य संज्ञावह या संवेदनावह ( sensory) वातनाडियों में भी विक्षत हो सकते हैं। जब पञ्चमी नाडी की संज्ञात्मक मूल प्रभावित होती है तो मुखमण्डल पर विसंज्ञता ( anaesthesia) हो जाती है। अष्टमी शीर्षण्या नाडी के प्रभावित होने से व्यक्ति वधिर हो जाता है। संचालनात्मक विक्षोभ अक्षिपेशियों में होता है जिसके कारण वर्मपात, टेरता या द्विधा दृष्टि देखी जाती है पर वह अस्थायी स्वरूप का होता है। ये लक्षण पश्चकार्य के द्वारा होने वाले विशिष्ट लक्षण न होकर मस्तिष्कछदपाक (जो वातफिरंग के कारण होता है।) के कारण होने वाले माने जाने चाहिए ऐसा विकारवेत्ताओं का मत है।
आङ्गिक दारुण्य ( Visceral crises)-विभिन्न शरीरावयवों में कुछ विकार (दारुण्य ) मिलते हैं। जिनमें स्वरयन्त्र तथा आमाशय में होने वाला भयानक शूल उल्लेख्य है । आमाशयिक शूल के पश्चात् वमन हो सकती है।
विशूलीय विकार-पोषणविक्षोभ (trophic disturbances) नाम से कथित विकारों को हम विशूलीय विकार नाम देते हैं वे इस रोग में पहेली हैं जिनके कारण का यथार्थ बोध अभी तक नहीं हो सका है। इन विकारों में शूलविहीन चारकाट सन्धियाँ, शूलहीन पादतलीय छिद्रित व्रण (painless perforating ulcer of the sole of the foot) आते हैं। विशूलता (analgesia) ही इनका प्रधान लक्षण है जिसके कारण थोड़ा सा भी आघात कहीं लगने पर वहाँ पर एक विक्षत बन जाता है।
मस्तिष्कोद विकार-इस रोग में मस्तिष्कोद में बहुत बड़े परिवर्तन नहीं होते। लसीकोशोत्कर्ष १० से ५० तक मिलता है पर जब साथ में तानिकीय प्रकोप ( मस्तिकछदपाक) होता है जो इस रोग की दारुण्यावस्था में देखा जाता है तो कोशीय गणन सैकड़ों में भी मिल सकता है । तब बहुन्यष्टिकोशाओं की उपस्थिति भी मिलती है। प्रोभूजिन की बहुत हलकी वृद्धि होती है । श्लेषाभ स्वर्ण प्रतिक्रिया फिरंगिक वक्र रेखा (luetic curve) प्रकट करती है। वासरमैन प्रतिक्रिया ७० प्रतिशत रुग्णों में अस्त्यास्मक ( positive ) होती है पर सर्वाङ्गीण घात की अपेक्षा कुछ अल्प तीव्र होती है। यह प्रतिक्रिया रक्त में नास्त्यात्मक होते हुए भी मस्तिष्कोद में अस्त्यात्मक होती है। जितना ही रोग नया नया लगता है मस्तिष्कोद चित्र रोग की स्थिति बतलाने में उतना ही समर्थ होगा। पर यदि रोग हुए वर्षों बीत जावे तो मस्तिष्कोद पूर्णतः प्रकृत भी मिल सकता है।
For Private and Personal Use Only