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फिरङ्ग
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gi में कुछ विहास हो जाता है । यह उत्तरजात विहास है जो मस्तिष्क के संचालन बाह्यक ( motor cortex ) के कोशाओं में आघात लगने से होता है ।
८. सुषुम्ना के पश्चस्तम्भों में पश्चकार्य की भाँति ही विहास मिलता है जो इस बात का प्रमाण है कि उन्मत्तस्य सर्वांगघात के साथ साथ पश्चकार्य भी रह सकता है । पर यह आवश्यक नहीं कि सर्वांगघात के प्रत्येक रुग्ण में पश्चकार्य पाया ही जावे |
९. दृष्टिनाडी में विह्रास होने के कारण उसकी अपुष्टि देखी जा सकती है । अन्य शीर्षण्या नाडियों में भी विहास हो सकता है ।
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ऊपर के विक्षतों को देखने से उन्मत्तस्य सर्वांगघात में निम्न विकार मिला करते हैं:(१) मस्तिष्कीय या मानसिक विकार, (२) स्वर विकार, ( ३ ) प्रकम्प, (४) नेत्रतारक प्रतिक्षेप का अभाव, (५) अंगघात, (६) मस्तिष्कोद परिवर्तन |
यह कह दिया गया है कि मस्तिष्क के अग्रिम पिण्ड में विहास बहुत अधिक होता है इस कारण निर्णय करना, तर्क-वितर्क करना तथा आत्मसंयम करना ये तीन जो उच्च विचार कहे जाते हैं उन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । रोगी ऐसा विचित्र कार्य करता हुआ देखा जा सकता है जो उसके लिए पूर्णतया नवीन या विभिन्न हो । उसका नैतिक पतन हो जाता है । रोग का प्रभाव सर्वप्रथम मन और आत्मा के उच्च भावों पर पढ़ता है (ओपेन होम ) | स्मरणशक्ति का हास बहुत पहले से ही होने लगता है। ज्यों-ज्यों उन्माद बढ़ता जाता है मानसिक स्थिति बिगड़ती चली जाती है। जब उसका शारीरिक और मानसिक विनाशकार्य द्रुतगति से चलता रहता है उसी समय बीच-बीच में कुछ स्वास्थ्य की झाँकी सी भी दिखाई दे जाती है जिनके कारण कभी-कभी रोगी बहुत ऊँची-ऊँची बातें करने लगता है । वह समझने लगता है कि मानो वह ईश्वर बन गया या करोड़पति हो गया । यह सब उन्माद है जो आगे चलकर पूर्ण ( dementia ) में परिणत हो जाता है । इस मत्तता का प्रधान कारण मस्तिष्क रचनाओं का बिहास होता है जिसे सुकुन्तलाणु अन्य कारकों के साथ करने में समर्थ होता है।
वाणीविकार इस रोग में एक महत्व का लक्षण है। रोगी की वाणी अस्पष्ट, भारी और टूटी फूटी हो जाती है। बोलने का जो नियम है कि प्रत्येक अक्षर के बीच में थोड़ा रुकना और एक अक्षर के बाद दूसरा बोलना यह नियम टूट जाता है। रोगी वाणी का संयम खो बैठता है इससे बिना रुके जल्दी-जल्दी चाहे जितना और वह सभी अस्पष्ट बोलता है | यह क्यों होता है इसका पता नहीं लगा ।
प्रकम्प इस रोग में प्रायः देखे जाते हैं । ये ओष्ठों और जीभ में अत्यधिक मिलते हैं । राजिलपिण्ड में विह्रास होने के कारण बाहुपादों में प्रकम्प देखे जाते हैं ।
नेत्रतारक में विकार इस रोग के सर्वप्रथम लक्षणों में गिना जाता है । आर्जिल रौबर्टसन तारक पश्चका के अतिरिक्त इसी रोग में मिलता है। इसमें प्रकाश प्रतिक्षेप
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