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विकृतिविज्ञान
सुना तक ही सीमित नहीं रहते अपि तु पश्चनाडीमूलों में भी वैसे ही विक्षत हो जाते हैं । अग्रनाडीमूलों में कोई परिवर्तन नहीं होता । पश्चमूलप्रगण्डों की अवस्था विचित्र होती है । कोई कहता है कि उनमें विहासात्मक परिवर्तन बहुत तीव्र होते हैं और कोई उन्हें गौण मानता है । अक्षिनाडी का विहास प्रायः देखा जाता है । यह दृष्टि पटल में न होकर नाडी ही में होता है । नेत्रचेष्टनी और वक्त्रनाडियों में भी यह विहास मिल सकता है ।
पश्चका रोग के विक्षत सुषुम्ना में कैसे बनते हैं इसके सम्बन्ध में कितने ही मत रहते हुए भी आधुनिक अनुमान यह है कि फिरंगविष अभिवाही नाड़ीतन्तुओं के साथ परिवातीय लसवहाओं ( perineural lymphatics ) या अक्षरम्भ में होकर गमन करता है । यह विष समीपस्थ महाधमनी के बाह्यचोल से या अन्य किसी स्थल आता है | इसी के कारण अभिवाही नाडीतन्तुओं का विह्रास हो जाता है ।
इस रोग के कारण जो लक्षण उत्पन्न होते हैं उनके ७ समूह बनाए जा सकते हैं:( १ ) संवेदनात्मक विकार, (२) समन्वयात्मक विकार ( ३ ) प्रतिक्षेपात्मक विकार, ( ४ ) शीर्षण्यानाड्यात्मक विकार, ( ५ ) आङ्गिक दारुण्य, ( ६ ) विशूलीय विकार, (७) मस्तिष्कोद विकार ।
संवेदनात्मक या संज्ञात्मक विकार- ये विकार दो प्रकार के हो सकते हैं एक प्रातीतिक ( subjective ) तथा दूसरे वैषयिक ( objective ) 1 प्रातीतिक विकारों में पहला लक्षण यह होता है कि रोगी अपने पैरों से जिस भूमि पर चलता है उसकी पूरी प्रतीति करने में असमर्थ होने लगता है । उसे ऐसा लगता है कि मानो वह रुई के गालों के ऊपर चल रहा हो । कभी-कभी सहसा पैरों में वेदना प्रारम्भ होकर चली जाती है । कभी-कभी शूल इतना तीव्र होता है कि उसका सहना कठिन हो जाता है। पश्चनाडीमूलों में सबसे पहला प्रभाव शूलसंवाहक तन्तुओं यह होता है कि उनमें शूल की प्रचण्ड तरंगें या प्रेरणाएं ( impulses ) उत्पन्न हो जाती हैं । यह शूल अधोशरीर के धरातल पर प्रत्यागतशूल ( referred pain) के रूप में होता है। प्रारम्भिक अवस्था में परमशूलता ( hyperalgesia ) भी हो सकती है पर वह क्यों होती है यह कहना कठिन है । वैषयिक संवेदनात्मक विकारों में शूल और गम्भीर संवेद्यता ( deep sensibility ) का बहुत महत्व है । शूल टाँगों ( सक्थियों ) तथा पृष्ठ पर अधिक प्रभाव डालता है । इसका ज्ञान कटिवेध करने पर चिकित्सक को होता है । शूल, तापांश और कुछ स्पर्शज्ञान का वहन करने वाले तन्तु धूसर पदार्थ के पश्चश्चग के कोशाओं के चारों ओर समाप्त हो जाते हैं और वहाँ से नूतन तन्तु निकल कर सुपुन्ना के दूसरे पार्श्व में चले जाते हैं और वहाँ अग्रपार्श्वीय स्तम्भ में आज्ञाभिगा तन्त्रिका ( spinoth&lamic tract ) बना लेते हैं । यह तथ्य कि शूल की संवेदना ( जो पश्चस्तम्भ द्वारा नहीं लेजाई जाती ) को इस रोग में बाधा पहुँचती है बहुत महत्व रखता है । यह इस बात को सिद्ध करता है कि इस रोग का मुख्य विक्षत पश्चनाडी मूल ( posterior nerve root ) ही स्वयं होता है। आज्ञाभिगा तन्त्रिका में कोई
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