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विकृतिविज्ञान मिलता है अथवा सम्पूर्ण मस्तिष्कार्द्ध १ सूत मोटी एक सघन कला द्वारा आवृत हो जाता है। मस्तिष्कसुषुम्नाजल के प्रवाह में बाधा आने से फिरंगिक उदमस्तिष्क होता हुआ भी देखा जाता है।
अण्वीक्षण से जब तक फिरंगार्बुदीय निर्माण की पुष्टि न हो तानिकीय उत्स्यन्द (स्राव) को फिरंगिक नहीं कहा जा सकता । जैसे कि यचममस्तिष्कच्छदपाक या यक्ष्मतानिकीय पाक में कोशा होते हैं वैसे ही यहाँ भी मिलते हैं अर्थात् प्ररसकोशा तथा लसीकोशाओं की भरमार वहाँ पाई जाती है। कभी कभी तानिकाओं के नीचे की मस्तिष्क उति में व्रणशोथ फैलता है। वाहिनियाँ व्रणशोथात्मक कोशाओं के प्रैवेयों ( collars ) या मणिबन्धों (cuffs) से आच्छादित हो जाती हैं। अधिक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह तानिकीय स्राव का प्रसार ब्रह्मोदकुल्या ( subarachnoid space ) के परिवाहिनीय दीर्घण ( prolongation ) के कारण है। यह मान लेना पड़ेगा कि इस प्रसार में सुकुन्तलाणु का पूरा पूरा हाथ रहता है। कुछ भी हो इस सब का परिणाम मस्तिष्कपाक में होता है जिसके कारण निश्चित लक्षण प्रकट होते हैं ।
सुषुम्ना में फिरंगिक सुषुम्नापाक होता है। यह पाक मस्तिष्कपाक की अपेक्षा अधिक स्पष्ट होता है। बुझर्ड और ग्रीनफील्ड का कथन है कि सुषुम्नापाक के ८० प्रतिशत रोगो फिरंगोपसृष्ट हुआ करते हैं। सुषुम्नापाक अनुप्रस्थ दिशा में होता है
और कुछ ही खण्डों ( segments) तक सीमित रहता है । इस पाक का कारण रुग्ण वाहिनियों में घनास्रोत्कर्ष का होना है। इसके कारण सुषुम्ना का मृदन होने लगता है साथ में फिरंगार्बुदिकाओं की भरमार हो जाती है, नाडीकोशा नष्ट हो जाते हैं नाडीसूत्र भी खण्डित हो जाते हैं तथा वाहिनियों में भी बहुत परिवर्तन हो जाता है ।
ऊपर जितने भी विक्षत बतलाये गये हैं सब में फिरंगिक धमनीपाक अवश्य रहता है। धमनियों की फिरंग का वर्णन पहले किया जा चुका है। इस फिरंग में धमनियों के बाह्यचोल में स्थित लसवहाओं में सुकुन्तलाणुओं की भरमार हो जाती है और लसीकोशा तथा प्ररसकोशा भी भर जाते हैं। इन क्षुद्र वाहिनियों में मुख्य द्वितीयक परिवर्तन इनके अन्तश्छद में यह होता है कि वह लगातार स्थूल होता चला जाता है यहाँ तक कि अभिलोपी धमन्यन्तश्छदपाक हो जाता है। महाधमनी में मध्यचोल का जैसा सिध्मिक नाश होने से सिराज ग्रन्थियों जैसी स्थिति यहाँ नहीं बनती। यहाँ तो घनास्त्रोत्कर्ष होकर सुपिरक पूर्णतः बन्द हो जाता है। इस प्रकार एक वाहिनी के भातर जहाँ अन्तश्छद मोटा पड़ता जाता है वहाँ ऊपर से फिरंगाबुंदीय प्रवृद्धि होती चलती है और धमन्यन्तश्छदपाक तथा परिधमनापाक दोनों ही इस रोग में मिलते हैं।
इस रोग में विक्षतों और रोगलक्षणों का क्या सम्बन्ध होता है उसकी ओर ब्वायड ने कुछ इङ्गित किया है। यदि कुछ आकार का फिरंगार्बुद बनता है तो अन्तःकरोटीय अबुद के लक्षण प्रकट होने लगते हैं । ये लक्षण विक्षत की मस्तिष्क
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