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फिरङ्ग
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भाग तो स्थूल सिध्म का रूप ले रहा है तथा उसी के ऊपर मध्यचोल में तनुत्व तथा विरलता हो गई है । विक्षत का ऊपरवर्ती बाह्मचोल उसी प्रकार बाहर की ओर स्थूल तथा बहुत स्पष्ट हो जाता है जिस प्रकार अन्तश्छद अन्दर की ओर। इस कारण बिना महाधमनी को चीरे हुए बाहर से भी उसकी दशा का अवलोकन किया जा सकता है।
सूक्ष्मचित्र-अण्वीक्ष द्वारा देखने पर जो चित्र प्रकट होता है वह विशिष्ट होता है। सबसे पहले बाह्यचोल में विक्षत बनते हैं। वे बाहिन्यवाहिनियों (vasa vasorum) के चारों ओर कोशाओं के पुंजों या कोशाओं की रेखाओं के रूप में देखे जाते हैं । ये कोशा लसीकोशा तथा प्ररसकोशा होते हैं। इन दोनों प्रकार के कोशाओं में कभी कोई अधिक हो जाता है और कभी कोई कम हो जाता है। ब्वायड के एक रोगी की महाधमनी के बाह्यचोल में सब कोशा लसीकोशा मिले और उसी के मध्यचोल के सब कोशा प्ररसकोशा पाये गये थे। प्रारम्भिक अवस्थाओं में बाह्य चोल में असंख्य सुकुन्तलाणुओं की उपस्थिति पाई जाती है। पर महत्त्व पूर्ण परिवर्तन प्रायः मध्यचोल में मिला करते हैं। क्योंकि यहाँ पेशीतन्तु तथा प्रत्यास्थतन्तु दोनों का पर्याप्त विनाश होता रहता है। प्रत्यास्थ अति का अभिरक्षन किया जावे तो वह विक्षत तक पाई जाती है पर विक्षत के अन्दर पूर्णतः विलुप्त हो जाती है उसमें उसके कुछ तन्तु (shreds ) मात्र शेष रहते हैं। मध्यचोल के इन स्पष्ट विक्षतों के कारण बड़ी सरलता के साथ महाधमनी की फिरंग को मध्यचोलीयपाक कहा जा सकता है। इस प्रत्यास्थ ऊति के विनाश के ही कारण आगे चल कर महाधमनी में सिराज प्रन्थि (aneurysm ) का उदय हुआ करता है इसे स्मरण रखना बहुत आवश्यक है। कुछ नवीन वाहिनियाँ भी वनकर मध्यचोल तक पहुँचती हुई देखी जाती हैं जो बहुत विस्मयकारक है। वे अन्तश्छद के स्थूलित सिध्मों में भी कुछ गहराई तक प्रवेश करती हुई मिलती हैं। आगे चलकर कोशीय भरमार का स्थान व्रणवस्तु ले लेती है परन्तु वह पूर्णतः विलुप्त नहीं होती। एक बार जहाँ महाधमनी में सुकुन्तलाणु ने प्रवेश पालिया कि फिर कोई भी चिकित्सा उन्हें वहाँ से च्युत नहीं कर सकती, अन्तश्छद में जो इतस्ततः तान्तय स्थौल्य हो जाता है उसका हेतु सुकुन्तलाणु नहीं होता अपि तु वह तो एक प्रकार की पूरक क्रिया (compensatory action) मात्र है। कालोपरान्त यह नवीन तान्तव ऊति काचर ( hyaline ) मयी हो जाती है। पर न तो यह नष्ट होती है न इसमें कोई स्नैहिक विहास ही देखा जाता है । जैसा की वाहिन्यकोष्ठों ( atheroma ) में होता है। इसी समय यदि फिरंगिक महाधमनियों की एक पंक्ति का अवलोकन किया जावे तो किसी को भी यह जानकर बहुत विस्मय होगा कि कितनी बहुलता के साथ उसके अन्तश्छद में वाहिन्यकोष्ठीय (atheromatous) विक्षत पाये जाते हैं। फिरंग वाहिन्यकोष्ठ का प्रत्यक्ष हेतु चाहे भले ही न हो पर सहायक कारण अवश्यमेव हुआ करती है।
महाधमनी का प्रसर विस्फार उसकी प्रत्यास्थता के नाश का प्रतीक है। यद्यपि
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