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विकृतिविज्ञान
आभ्यन्तर फिरंग में उदसन्धिता ( hydrarthrosis ) विशेष करके देखी जाती है । या वेदना शून्य होती है तथा इसमें व्रणशोथ का कोई लक्षण देखने को नहीं मिलता है। जैसे आभ्यन्तर फिरंग के लक्षण अस्थायी होते हैं वैसे उदसन्धिता भी अस्थायी होती है । उदसन्धिता होने का अर्थ सन्धि में बहुत से उत्स्यन्दन ( effusion ) का भर जाना है । यह उदसन्धिता अक्ष कोरसन्धि ( sternoclavicular joint ) में बहुत देखी जाती है।
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बहिरन्तर्भवफिरंग में जो परिवर्तन होते हैं वे सन्धियक्ष्मा के लक्षणों से मिलते जुलते होते हैं । इस अवस्था में अस्थिशिर पर फिरंगार्बुदिकाएँ निकल निकल कर पहले सन्धि की सन्धाय कास्थियों को क्षति पहुँचाती हैं फिर श्लेष्मघरकला को आघातित करती हैं । जानुसन्धियाँ दोनों ही समान रूप से और एक साथ इस रोग द्वारा प्रभावित होती हुई मिल सकती हैं सन्धायी कास्थियों ( articular cartilages) अपरदन के कारण तथा श्लेष्मधरकला के विनाश से सन्धि की गतियाँ सीमित हो जाती हैं और धीरे-धीरे अस्थि पूर्णतः निश्चल भी बन सकती है । इसी अवस्था में यह भी हो सकता है कि परिसन्धायी ऊतिओं ( सन्धि के ऊपर के अंगों ) में फिरंगार्बुदीय परिसन्धिपाक ( gummatous periarthritis ) हो जावे ।
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बहिरन्तर्भवफिरंगावस्था में सन्धि में तीन परिवर्तन देखने में आ सकते हैं :
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१ - श्लेष्मधरकला में शोथ ।
२ - कास्थि का अपरदन ।
३ - परिसन्धायी ऊतियों में फिरंगार्बुदनिर्माण |
चारकट सन्धियाँ ( Charcot's joints )
फिरंग की चतुर्थावस्था में सन्धियों में विशेष परिवर्तन देखने को मिलते हैं । पर वे परिवर्तन सुकुन्तलाणु के प्रत्यक्ष विघ्न के कारण न हो कर अप्रत्यक्ष प्रभाव से देखे जाते हैं । अर्थात् फिरंग की चतुर्थावस्था आने पर फिरंग का केन्द्रिय वातनाडी संस्थान पर प्रभाव होता है जिसके कारण संज्ञावहवातनाडियाँ विनष्ट हो जाती हैं। संज्ञावह वातनाडियों ( sensory nerves ) के नष्ट हो जाने से एक प्रकार का विहासात्मक परिवर्तन वंक्षण जानु तथा गुल्फसन्धियों में होता है । सन्धि थोड़ी या बहुत चौड़ी होती जाती हैं और उनकी गतियाँ स्वतन्त्र और अनियन्त्रित होती चली जाती हैं । इतना सब होने पर भी शूल किसी भी समय नहीं होता । सन्धि में एक आविल आबभ्रु वर्ण का तरल भर जाता है । सन्धि की सब रचनाएँ नष्ट होती चली जाती हैं। स्नायु भी लुप्त हो जाते हैं । अस्थियों के सिरों पर सन्धि का कोई लक्षण अवशिष्ट नहीं रह जाता । सन्धि पूर्णतः निरर्थक हो जाती है और न तो उसके द्वारा कोई गति ही हो पाती है और न वह अंग को साध ही सकती है। कहीं कहीं जीर्णावस्था होने पर श्लेष्मघरकला का स्थूलन तथा सन्धायी धरातल पर अस्थि का बढ़ना देखा जाता है । जहाँ सन्धि की संज्ञाशून्यता हो गई कि उसकी गति अनियन्त्रित हो जाती है पैर या
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