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विकृतिविज्ञान आपीत श्वेतवर्ण की पट्टी हो तो निश्चित मान लिया जाता है। साथ का चित्र उर्वस्थि के अधोभाग में फिरंगिक अस्थिशिरपाक को प्रकट करता है।
अण्वीक्षण करने पर ऐसा पता लगता है कि यहाँ पर अस्थीयन की प्रक्रिया अत्यधिक विचलित हो गई है कास्थि की विषम रेखाएँ अस्थिदण्ड में घुस घुस कर अस्थिशिरीय रेखा को चौड़ी पट्टी में बदल रही हैं। अधिक गम्भीर अवस्थाओं में अस्थिशिरीय कास्थि का स्थान फिरंगिक कणन अति ले लेती है जिसमें ऊतिमृत्यु तथा किलाटीयन होने लगता है।
ये सब उपद्रव एक सन्देह की पुष्टि करते हैं। साधारणतः अस्थिशिर की कास्थि का अस्थीयन होकर शिर और दण्ड ये दोनों अस्थि के भाग संयुक्त हो जाते हैं परन्तु फिरंग रोग के कारण वे दोनों जुड़ते नहीं। बल्कि या तो सहसा या कोई आघात पाकर अस्थिशिर और अस्थिदण्ड दोनों बिल्कुल पृथक हो जाते हैं जिसके कारण कृट अंगघात ( pseudo-paralysis ) हो जाता है जिसे क्ष-चित्र द्वारा देख सकते हैं।
फिरंगिक अंगुलिपर्वपाक फिरंग के कारण एक या एकाधिक अंगुलिपर्व की मज्जा मज्जागुहा के विस्तार और अपरदन होने से बाहर निकल आती है और धरातल पर एक नई पर्यस्थीय अस्थि बना देती है। इसके कारण अंगुलिपर्व ताकार ( spindle-shaped ) हो जाता है जैसा कि यक्ष्मपर्वपाक में होता है।
नासानति आदि सहजफिरंग में नासास्थि तथा ताल्वस्थि में फिरंगार्बुद हो जाते हैं और जब उनका विनाश होता है तो नाक बैठ जाती है (नासानति) और तालु में छिद्र ( तालुछिद्रण ) हो जाता है। तालुछिद्रण अवाप्त फिरंग में भी मिलता है।
अस्थि की अवाप्त फिरंग अवाप्त ( acquired ) फिरंग में अस्थि के अन्दर दो विशिष्ट विक्षत देखने में आते हैं। इनमें एक को पर्यस्थ ग्रन्थिका और दूसरे को प्रसर अस्थिपाक कहते हैं।
पर्यस्थग्रन्थिकाएँ ( periosteal nodes ) पर्यस्थग्रन्थिका नामक विक्षत के द्वारा हमें अस्थिगत फिरंग का निदान करने में बहुत सरलता रहती है । क्योंकि यह जंघास्थि पर प्रायशः तथा प्रगण्डास्थि, ऊर्वस्थि, तथा अन्तःप्रकोष्ठास्थि पर कभी कभी देखी जाती है। यह एक वाक्य में चर्माधः, स्पर्शशूली, वेदनामय, दृढ, स्थानसंश्रित शोथ होता है। यह स्थानसंश्रित ( localised ) होते हुए भी इसके किनारे स्पष्टतः पृथक नहीं किए जा सकते बल्कि यह समीप की अस्थि में चारों ओर घुसा हुआ दिखता है। पर्यस्थग्रन्थिकाओं के कारण जंघास्थि कभी कभी इतनी तीव्र और आगे की ओर निकल जाती है कि उसे तलवारधार जंघास्थि ( sabre tibia) नाम दिया जाता है। पर्यस्थ के भीतरी वाहिन्यस्तर में सुकुन्तलाणु स्थित रहते हैं तथा वाहिनियों के चारों ओर बहुत बड़ी मात्रा में कणनऊति बन जाती है यह उति न केवल पर्यस्थ में ही बनती
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