________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
फिरङ्ग
५६३
की वृद्धि तथा वर्तुल का आधिक्य देखा जाता है । इसमें सुकुन्तलाणु देखने के लिए तरल का प्राणिशरीर में अन्तःक्षेप करना होता है । इनकी उपस्थिति बराबर मिलती है ।
८. नेत्र में कृष्णमण्डलपाक ( iritis) देखा जाता है ।
९. जङ्घास्थि, अक्षकास्थि, उरः फलक और करोटि की अस्थियों की पर्यस्थि में पाक होने से इनमें घोर शूल होता है । यह शूल रात्रिकाल में अधिक होता है क्योंकि इस काल में श्लेष्माधिक्य होने से अधिरक्तता हो जाती है । भावप्रकाश में इसी शूल को आमवात इव व्यथा कहा है । एकाध अस्थिसन्धि में सौम्यस्वरूप का पाक भी पाया जा सकता है ।
बहिरन्तर्भवफिरंग
( Tertiary Stage )
कार बलक्षयो नासाभङ्गो वह्नेश्च मन्दता । अस्थिशोषोऽस्थिवक्रत्वं फिरंगोपद्रवा अमी ॥ बहिरन्तर्भवश्चापि क्षीणस्योपद्रवैर्युतः । व्याप्तो व्याधिरसाध्योऽयमित्याहुर्मुनयः पुरा ॥ (भावप्रकाश)
कृशता, बलक्षीणता, नासा का बैठ जाना, अग्नि की मन्दता, अस्थिशोष, अस्थिवक्रता ये फिरंग के उपद्रव हैं । बलक्षीण बहिरन्तर्भव फिरंग से व्यथित व्यक्ति उपद्रवों से युक्त होने के कारण और व्याधि का बहुत अधिक व्याप होने कारण मुनियों ने इसे असाध्य बतलाया है । यह फिरंग की तृतीयावस्था है । इसमें नासाभंगादि का कारण क्या है उसे जानने के लिए केवल मात्र उपरोक्त दो वाक्यों से ही काम चलना सम्भव नहीं है । इस विषय में बड़े बड़े विद्वानों ने जो करोड़ों रुपये व्यय करके आधुनिक काल में खोजें की हैं उनका तिरस्कार न कर नमस्कार करना ही अधिक लाभप्रद है ।
जिस प्रकार बाह्य फिरंग के पश्चात् आभ्यन्तर फिरंग का स्वरूप बनने के लिए कुछ काल आवश्यक होता है उसी प्रकार आभ्यन्तर फिरंगावस्था से बहिरन्तर्भव फिरंगावस्था आने के लिए भी कुछ गुप्त काल आवश्यक होता है । इस काल में रोगी पुनः यह समझने की भूल कर बैठता है कि वह रोगोन्मुक्त हो गया । यह गुप्त - काल कई सप्ताहों से लेकर कितने ही मासपर्यन्त तक चल सकता है । अन्ततोगत्वा यह गुप्तकाल समाप्त होता है और फिरंग की तृतीयावस्था ( बहिरन्तर्भवावस्था ) के विक्षत उपसर्ग लगने के दिन से पूरे दो से चार वर्ष पश्चात् प्रकट हो जाते हैं । कभी कभी वे पहले वर्ष में ही हो जा सकते हैं या फिर दस, पन्द्रह या बीस वर्ष पश्चात् भी हो सकते हैं । परन्तु वह असाधारण अवस्थाओं में ही होता है साधारणतः ४ वर्ष का काल इनके लिए रहता है । यह विक्षत उपसर्ग का प्रसार बहुत कम कर पाते हैं क्योंकि इनमें सुकुन्तलाणु बड़ी कठिनाई से प्राप्त किया जा सकता है ।
इस अवस्था का प्राचीन विक्षत फिरंगार्बुद ( gumma ) कहलाता है और सामान्यतम विक्षत जीर्णतन्तूत्कर्ष या सामान्य तन्त्वाभंजारव्य ( simple fibroid indurations ) कहा जाता है । प्रधान और सामान्यतम दोनों प्रकार के विक्षतों का सम्मेलन बहुधा देखा जा सकता है ।
For Private and Personal Use Only