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फिरङ्ग
का लगभग एक सा ही रहता है । केन्द्रिय महाकोशा जिसके चारों ओर अन्तश्छदीय कोशाओं का एक कटिबन्ध रहता है, उसके बाहर लसीकोशाओं की भरमार जिसके साथ तन्तुरुह ( fibroblastic ) प्रगुणन होता है दोनों रोगों में एक सा देखा जाता है । आगे चलकर फिरंगार्बुद के केन्द्रिय भाग में ऊतिमृत्यु तथा स्नैहिक विह्रास होने लगता है । इसके कारण केन्द्रिय भाग की सब रचनाएँ गलकर एक उपसिप्रियपुंज ( eosinophile mass बन जाता है जो समरस ( homogeneous ) होता है जिसमें कोशाओं का सब अपद्रव्य, स्नैहिक कण, पैत्तव आदि घुले रहते हैं इसके बाहर कभी महाकोशा दिखाई दे जाते हैं जिनके साथ अन्तश्छद के कोशा तथा लसीकोशा भी मिलते हैं । यदिमकाओं में जितनी संख्या में महाकोशा मिलते हैं उतनी बड़ी संख्या में वे यहाँ नहीं मिला करते । प्ररस कोशा बहुत बड़ी संख्या में देखने में आते हैं । यदि फिरंगार्बुद की वृद्धि रुक जावे तो उसके आधेय ( contents ) धीरे-धीरे प्रचूषित हो जाते हैं तथा बाह्य तान्तवस्तर और अधिक स्थूल हो जाता है यहाँ तक कि सम्पूर्ण पुंज एक सघन व्रणवस्तु में परिणत हो जाता है । फिरंगार्बुदों में सुकुन्तलाणु बहुत कम होते हैं तथा उन्हें ढूँढना भी पर्याप्त कठिन होता है। ज्यों-ज्यों फिरंगार्बुद पुराना पड़ता जाता है त्यों-त्यों परिणाह पर तन्तूत्कर्ष का कटिबन्ध अधिकाधिक स्पष्ट होता चला जाता है जिसके कारण केवल दो ही कटिबन्ध दृष्टिगोचर होते हैं जिनमें एक किलाटीय और दूसरा तान्तव होता है ।
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फिरंगार्बुद के उत्पन्न होते ही यदि योग्य चिकित्सा की जावे तो वे विलुप्त हो सकते हैं पर यदि फिरंगार्बुद उत्पन्न होने के पश्चात् पर्याप्त समय बीत जावे तथा शारीरिक ऊति का अत्यधिक विनाश हो चुका हो तो केन्द्रिय स्नैहिक भाग का प्रचूषण हो जाता है पर एक झुर्रीदार व्रणवस्तु अवशिष्ट अवश्य रह जाती है । यहाँ चूर्णीयन नहीं देखा जाता, फिरंगार्बुदों का तरलन सहसा कदापि नहीं होता पर यदि पूयजनक गाणुओं के द्वारा वे 'उपसृष्ट हो जाते हैं तो वे मृदु बन जाते हैं और उनके चारों ओर पूयन हो जाता है । आगे चलकर विद्रधि फूटती है और उसमें से पीत निर्मोक (slough ) निकल जाता है | यह निर्मोक प्रक्षालित हति wash leather bag) चमड़े सरीखा होता है । ऐसा लगता है कि मानो भीगी मशक का टुकड़ा हो । यह चर्मल और समनुगत ( coherent ) होता है। इसमें और यदिमकाओं की मृत ति में बहुत अन्तर होता है । जब यह पृथक् होता है तो एक गहरा छिद्रकित ( punched ) व्रण बन जाता है जिसके किनारे विषम होते हैं । ऐसे व्रण जंघास्थि के ऊपर सामने की ओर देखे जा सकते हैं । ये जब रोपित होते हैं तो व्रणवस्तु बनती है और रंगायण ( pigmentation ) भी होता है । ये पुनः पुनः होते हैं। इसके कारण व्रण कई-कई देखने में आते हैं। त्वचा और श्लेष्मलकलाओं के फिरंगार्बुद सदैव इसी मार्ग का अनुसरण करते हैं अर्थात् इनके द्वारा छिद्रकित व्रणन होता है । इस व्रणन में और प्रारम्भिक अवस्था के व्रणन में जो अन्तर होता है उसे भूलना न चाहिए क्योंकि यह शरीर के गम्भीर भागों से होता है और प्रारम्भिक व्रणन उपरिष्ठ भागों में हुआ करता है ।
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