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विकृतिविज्ञान फिरंगार्बुद सदैव वेदनाविहीन होते हैं। यही नहीं, जिन अङ्गों में अत्यधिक संवेदना ( sensation ) हो सकती है वहाँ इसकी उपस्थिति होने से वह अंग वेदनाशून्य हो जाता है। ऐसा वृषणों में फिरंगाबुंद होने के पश्चात् देखा जाता है। ये फिरंगार्बुद त्वचा तथा उपत्वम् ऊतियों में कठिन वेदनाशून्य पिण्डों के रूप में देखे जाते हैं। इनमें आगे चलकर वणन होता है। वणन के कारण स्वरयन्त्र में वे स्वरतन्त्री को नष्ट करके स्वरभंग ( hoarseness ) कर सकते हैं। तालु में इनके कारण छिद्रण हो सकता है। उसी को देख कर कदाचित् भावप्रकाशकार ने अस्थिशोप नामक उपद्रव इस रोग में बतलाया होगा। जिह्वा पर वणन हो सकता है। पहले गम्भीर शरीरावयवों में ये जितनी बहलता के साथ मिलते थे उतने आज कल नहीं मिलते। ये पेशियों, प्रावरगियों ( fasciae ), अस्थियों, यकृत् , मस्तिष्क, मस्तिष्कतानिकाओं, वृषण, वृक्क तथा कभी-कभी हृत्प्राचीर तक में देखे जाते हैं। ये फुफ्फुस में भी देखे जा सकते हैं।
संक्षेप में बहिरन्तर्भवफिरंग में आभ्यन्तरफिरंग के उपरान्त एक या अनेक वर्ष के गुप्तकाल के पश्चात् तृतीयस्वरूप के विक्षत उत्पन्न होते हैं ये संमित नहीं होते तथा गम्भीर और बाह्य दोनों प्रकार की रचनाओं पर प्रभाव डालते हैं-they affect deep as well as superficial structures-इसी कारण इसे भावमिश्र ने बहिरन्तर्भवफिरंग नाम यथार्थ ही दिया है। इन विक्षतों की प्रवृत्ति ऊतिविनाश वा मृत्यु की रहती है इनमें बहुत कम सुकुन्तलाणु पाये जाने से वे बहुत कम उपसर्गकारक होते हैं । ये तृतीयक विक्षत दो मुख्य प्रकारों में बांटे जा सकते हैं एक प्रकार स्थूल और स्थानिक (gross & localised ) विक्षत का है जिसे फिरंगाबुंद कहते हैं और दूसरा अणु और प्रसर ( microscopic & diffuse ) विक्षत का है। प्रथम प्रकार का विक्षत यद्यपि सरलता से देख लिया जाता है पर वह उतना नहीं होता जितना कि दूसरे प्रकार का विक्षत देखा जाता है।
फिरंगाबूंदों के सम्बन्ध में निम्न बातें ध्यान में रखने योग्य हैं:
१. यह स्थानीय उति के नाश से उत्पन्न होता है, एकन्यष्टिकोशाओं द्वारा यह निर्मित होता है तथा उसके केन्द्र में अतिमृत्यु और किलाटीयन के कारण एक गोंद जैसा पदार्थ बन जाता है जिसके कारण इसे गम्मा या गोंदाधुंद कहते हैं । इस केन्द्र के सिरे पर थोड़े से महाकोशा रहते हैं । जब कि यक्ष्मा में ये महाकोशा बहुत से होते हैं।
२. गम्मा के चारों ओर तन्तुरुह प्रगुणन करते हैं और एक प्रावर का निर्माण कर देते हैं । जब कि यक्ष्मा में एक यचिमका के समीप दूसरी कई यदिमकाएं देखी जाती हैं फिरंग में एक फिरंगार्बुद के समीप दूसरा फिरंगार्बुद नहीं होता अपि तु यह एकल ही मिलता है।
३. फिरंगार्बुद के क्षेत्र की वाहिनियों में परिधमनीपाक (periarteritis) तथा धमन्यन्तश्छदपाक ( endarteritis ) मिलता है।
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