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फिरङ्ग
५६६ ४. उतिनाश का मुख्य कारण सुकुन्तलाणु का कार्य तथा वाहिनीय परिवर्तन माने जाते हैं।
५. संक्षेपतः फिरंगार्बुद पीले रंग के रबर जैसे पदार्थ का एक ऐसा पुंज होता है जो छोटी मटर से लेकर एक बड़े संतरे के बराबर तक हो सकता है।
६. फिरंगार्बुद के ऊपर फैली त्वचा या श्लेष्मलकला में व्रणन बहुधा देखा जाता है। व्रणभूमि में वेदना नहीं होती और वह छिद्रकित होती है और प्रक्षालित चर्म जैसा उसका आधार होता है। उसकी बहीरेखा साकृतिक (serpiginous) होती है।
७. फिरंगवण के बाद जो व्रणवस्तु बनती है वह रंगी हुई होती है।
८. जानु या टाँग के ऊपरी तिहाई भाग में व्रणवस्तु मिले तो उसे फिरंगजन्य समझा जा सकता है।
९. नासानति या नासाभंग नामक उपद्व भावमिश्र ने फिरंग में बतलाया है वह फिरंगार्बुद के द्वारा विनष्ट हुई नासा के पिचक जाने से देखा जा सकता है और बहुधा मिलता है।
१०. मुख में विक्षत, ग्रसनी में व्रण, मृदु तालु में छिद्रण, स्वरतन्त्रियों का नाश ये सभी सम्भव हैं।
११. वृषण में फिरंगार्बुद होने पर उन्हें कितना ही दबावें दर्द नहीं होता। प्रसर फिरंग विक्षतों के सम्बन्ध में निम्न स्मरणीय है:
१. सुकुन्तलाणु शरीर में बहुत बड़े क्षेत्र में फैल जाते हैं तथा वे परिवाहिन्य लसावकाशों में जीर्णस्वरूप की व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं ।
२. छुद्र वाहिनियों के चारों ओर लसीकोशाओं और प्ररसकोशाओं की संचिति ( accumulation ) मिलती है। ____३. यहाँ किलाटीयन न होकर सतत प्रक्षोभ के कारण जीवितक उतियाँ बदल जाती हैं और उनका स्थान तान्तव उति ले लेती है।
फिरंग की चतुर्थावस्था फिरंग की चतुर्थावस्था ( Quaternary stage of syphilis ) वह अवस्था है जब फिरंग का मस्तिष्क पर विशेष प्रभाव पड़ने लगता है और जिसके कारण २ प्रमुख विकार पृष्ठीयकाय ( tabes dorsalis ) तथा औन्मादिक सर्वाङ्गघात ( general paralysis of the insane ) उत्पन्न हो जाते हैं। हम इन दोनों का वर्णन 'वातनाडीसंस्थान पर फिरंग का प्रभाव' नामक स्थल पर इसी अध्याय में आगे करेंगे। परन्तु इतना हम यहाँ कह सकते हैं कि पूर्व में हमने इस चतुर्थावस्था को तृतीय बहिरन्तर्भवावस्था के अन्तर्गत मान लिया था। यदि वास्तव में देखा जाय तो यह कोई पृथक् अवस्था न होकर फिरंगिक प्रसरजारठय के सुषुम्ना एवं मस्तिष्क पर हुए प्रभाव को ही प्रकट करती है। इस प्रकार यह बहिरन्तर्भवफिरंग के प्रसरीय विक्षतों के अन्तर्गत आ सकती है।
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