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यदमा
५५६ यदि आन्त्रयक्ष्मा में आधुनिक यचमोपचार का आश्रय लिया जावे तो मिस्सन्देह रोपित हो जाती है ऐसा प्रतीचीन विद्वानों का मत है। सूर्य चिकित्सा (heliothera. py ) या नीललोहितातीत किरणों का प्रयोगादि करने से आन्त्रव्रण अवश्यमेव रोपित होने लगते हैं। उनके आधार भाग पर कणन ऊति बनने लगती है जिससे धीरे-धीरे व्रणवस्तु बनती है। श्लेष्मल और उपश्लेष्मलकला के कोशाओं का तो पुनर्जनन तक हो जाता है। न केवल नया अधिच्छदीय स्तर ही बनता है अपि तु ग्रन्थियाँ भी पुनः तैयार हो जाती हैं। नया अधिच्छद व्रण के किनारे से बनकर उसकी भूमि की ओर जाता है। एक और भी आश्चर्य इस बात से होता है कि वह पुनर्जनन की क्रिया उस समय ही प्रारम्भ हो जाती है जब कि आन्त्र में व्रणशोथ अपनी पूर्णतः सक्रियावस्था में उपस्थित रहता है। यदि फुफ्फुस तथा अन्य दोनों स्थानों पर विक्षत हो तो चाहे फुफ्फुसीय विक्षतों में रोग की वृद्धि देखी जा रही हो आन्त्रविक्षतों में रोपणी क्रिया चल पड़ती है । इन तथ्यों के कारण आन्त्रयमा चिकित्सा उतनी आशारहित नहीं मानी जानी चाहिए जैसी कि आजतक मानी जाती रही है। प्रसङ्गात् आयुर्वेद इस रोग की चिकित्सा के सम्बन्ध में साध्यासाध्यता का निर्देश दो वाक्यों में इस प्रकार करता है. (१) व्रणितस्य च भवेच्छोपः स चासाध्यतमो मतः । जिसका अर्थ यह है कि यमव्रण के साथ शरीर भी सूखता चला जावे या सूख जावे
तो फिर वह रोगी असाध्य ही मान लेना चाहिए। . (२) महाशनं क्षीयमाणमतीसारनिपीडितम् । शूनमुष्कोदरं चैव यक्ष्मिणं परिवर्जयेत् ॥ : जब अधिक भोजन करते हुए भी रोगी क्षीण होता चला जावे। साथ में अतीसार से पीडित हो, अण्डकोश तथा उदर सूज जावें या उनमें जल भर जावे तो ऐसा यक्ष्मी छोड़ देना चाहिए। अतीसार यचमा में होना असाध्यता का द्योतक है इसी को हिप्पोक्रेटीज भी मानता है-'phthisical persons die if diarrhoca set in' उसी की पुष्टि साइडनहैम करता है-lastly to close the scene,a loose ness succeeds'
( ३ ) ज्वरानुबन्धरहितं बलवन्तं क्रियासहम् । उपक्रमेदात्मवन्तं दीप्ताग्निमकृशं नरम् ॥ यदि यचमी में ज्वर का अनुबन्ध न हो, वह बलवान् और चिकित्सा के कष्ट को झेल सके, उसे कार्य न हो तथा उसकी अग्निदीप्त हो तथा उसका आत्मबल हो तो ऐसा नर चिकित्सा के योग्य माना जाता है। यहाँ बलवन्त और आत्मवन्त शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों दृष्टियों के द्योतक हैं। ___ आन्त्रिक यक्ष्मा का एक उपद्रव आन्त्रकार्यावरोध होता है। जब आन्त्र का विनाश बहुत अधिक देखा जाता है तो इतनी अधिक व्रण वस्तु बनती है और इतने मेखला व्रण बन जाते हैं कि उसके स्वाभाविक कार्य में बाधा उत्पन्न हो जाती है। लौडासन ब्राउन ने एक रोगी के अन्दर ग्रहणी से उण्डुक तक २० मेखला व्रण देखे थे। वास्तविक आन्त्रक्रियावरोध का कारण तो अभिलागों के कारण आन्त्र में पड़ी ऐंठने
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