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विकृतिविज्ञान
आभ्यन्तरफिरंग
( Secondary syphilis ) सन्धिष्वाभ्यन्तरः स स्यादामवात इव व्यथाम् । शोफ च जनयेदेष कष्टसाध्यो बुधैः स्मृतः॥
(भावप्रकाश) आभ्यन्तरफिरंग वह होता है जिसमें सन्धियों में आमवात के समान शोफ और शूल ( oedema and pain ) होता है। इसे बुद्धिमान् कष्टसाध्य मानते हैं।
ऊपर आभ्यन्तर फिरंग का सम्पूर्ण स्वरूप आचार्य ने व्यक्त नहीं किया केवल एक अस्थिसन्धियों के आमवात सदृश विकार की ओर इङ्गित कर दिया है । वास्तव में तो प्राथमिक विक्षत होने के पश्चात् प्रशान्तिकाल (peroid of quescence) आता है। एक औपसर्गिक ज्वर के लिए जितने लम्बे संचयकाल की आवश्यकता होती है उतना ही बड़ा यह प्रशान्तिकाल हुआ करता है। यह ६ से लेकर १२ सप्ताह तक हो सकता है। उसके पश्चात् फिरंगिक विक्षत सर्वाङ्गीण स्वरूप के हो जाते हैं यद्यपि सुकुन्तलाणु की सर्वव्यापकता (generalisation) शरीर की सम्पूर्ण अतियों में तो उसी समय हो जाती है जब कि वह प्रथमतः शरीर में प्रविष्ट होता है।
बाह्यफिरंग (प्रथमावस्था) के पश्चात् आगे की अवस्थाओं में अनूर्जिक अनुहृषता का दौरदौरा प्रारम्भ हो जाता है जिसके कारण आभ्यन्तरफिरंग में ज्वर तथा उत्कोठ ( rashes ) आदि देखे जाते हैं। बहिरन्तर्भवफिरंग में ऊतिमारक व्रणशोथात्मक विक्षत बनते हैं जिनके साथ साथ वाहिन्य व्रणशोथ भी रहता है तथा फिरंग की चतुर्थावस्था में मस्तिष्क में व्रणशोथ के कारण मन्द-मन्द ऊतिमृत्यु होकर सर्वांग घात हो जाया करता है।
आभ्यन्तर फिरंग का श्रीगणेश सौम्यज्वर, व्याकुलता, शिरशूल, अरक्तता तथा लसग्रन्थियों की सार्वदैहिक वृद्धि के साथ होता है। ग्रैविक, कर्णमूलीय एवं पश्चकरोटीय ( occipital ) प्रदेश की लसग्रन्थियों में विशेष करके प्रभाव पड़ता है वे छोटीछोटी गोली ( shots ) के समान हो जाती हैं। शिरःशूल का प्रधान कारण हलका सा मस्तिष्कछदपाक का हो जाना होता है जिसके कारण मस्तिष्कोद का निपीड बढ़ जाता है और मस्तिष्कोद में लसीकोशाओं की संख्या भी बढ़ जाती है। त्वक् उत्कोठ ( skin rashes ) इस रोग में एक सर्वसाधारण घटना रहा करती है, वे गुलाबीरंग के होते हैं और उनमें सुकुन्तलाणु की उपस्थिति आँकी जा चुकी है। इन उत्कोठों का कारण स्वचा के उपरिष्ठ (superficial) स्तरों में व्रणशोथात्मक अधिरक्तता के साथ-साथ क्षुद्र कोशाओं (small cells) की भरमार माना जाता है। ये उस्कोठ द्वितीयक त्वक् फिरंगुष्ठों ( secondary cutaneous syphilides ) के नाम से भी पुकारे जाते हैं। कभी कभी त्वक रोगों ( papillae ) की वृद्धि होकर अधिच्छदीय कोशाओं का अत्यधिक प्रगुणन हो जाता है। श्लेष्मलकलाओं पर फिरंगुष्ठों के कारण श्वेत सिध्म ( white patch ) बन जाते हैं वे मुख में तथा जिह्वा पर प्रायः देखने को मिलते हैं। ये श्वेत सिध्म बहिरन्तर्भवफिरंग (तृतीयावस्था) में उत्पन्न चर्म के सितघटन (leucoplasia)
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