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यक्ष्मा
१५६७ है कि बाह्यकीय न्यासर्ग की ही एक क्रिया स्वचा को काला होने से रोकने की है जिसे वह करने में असमर्थ हो जाने से यह स्थिति आती है। हम यहाँ पाठकों को थोड़ा आयुर्वेद ज्ञान की ओर ले जाते हैं जहाँ सुश्रुत ने ५ प्रकार के पित्तों का वर्णन किया है ये पित्त पाचक, साधक, भ्राजक, रंजक और आलोचक हैं। पाचकपित्त की कमी से अग्निमान्य होता है। साधक की कमी से हृदय दुर्बल होता है, भ्राजकपित्त की कमी से शरीर में गर्मी की कमी होती है जो मूलचयापचय की कमी को प्रगट करता है, रंजकपित्त की कमी से शरीर विवर्ण हो जाता है और अरक्तता भी हो सकती है तथा आलोचकपित्त की कमी से दृष्टि दुर्बल हो जाती है। हम इस रोग में ये सभी वस्तुएँ देखते हैं और सब लक्षण यहाँ मिलते हैं इसलिए इस बाह्यकन्यासर्ग को शरीरव्यापी पित्त का ही एक अंश क्यों न मान लें। ऐसा करने से हमें ब्लोचादि को बिना कष्ट दिये ही अपने मत को समझ लेने में सुविधा होगी। बाह्यकन्यासर्ग अत्यधिक पित्तप्रभावक तत्व है ऐसा मानकर एक आयुर्वेदज्ञ इसका निश्शंक प्रयोग करके लाभ उठा सकता है।
उपरोक्त दृष्टिकोण से हम एडीसनामय को घातक पैत्तिकक्षय कह सकते हैं। .
(१०) मूत्र-प्रजननसंस्थान पर यक्ष्मा का प्रभाव
यत्मवृक्कपाक तीव्र और जीर्ण दोनों प्रकार की यक्ष्माओं द्वारा अचमवृक्कपाक उत्पन्न किया। जा सकता है।
श्यामाकसम यक्ष्मा-प्रथम प्रकार श्यामाकसम यच्मा है। जिस प्रकार वह अन्यत्र फैलती है ऐसे ही वह मूत्रप्रजननसंस्थान में भी फैल जाती है और वृक्क पर बहुत प्रभाव डालती है। वृक्क में क्षुद्र धूसर ग्रन्थकों के रूप में यदिमकाएँ प्रकट होती हैं जो वृक्क के बाह्यक में अत्यधिक संख्या में फैलती हैं उतनी वे वृक्कमजक में नहीं फैलतीं। यह दोनों वृक्कों में एक साथ देखा जाने वाला रोग है। पूयिक वृक्त की भांति यह अधिरक्तता के एक कटिबन्ध से घिरा हुआ नहीं मिलता।
व्रणात्मक यक्ष्मा-यह वयस्क होने के उपरान्त होने वाला एक जीर्ण रोग है जिसका प्रारम्भ पहले एक वृक्क में होता है जो आगे चलकर दोनों वृक्कों में अपने पंजे जमा लेता है। यह रोग बहुत शनैः शनैः होता है जिसके कारण वृक्काल का इतिहास कोई खास नहीं देखने में आता । उपसर्ग रक्तधारा द्वारा यहाँ तक पहुँचता है, उसकी प्रथम नाभि फुफ्फुस, अस्थि, सन्धि, लसग्रन्थकादि में से कहीं भी हो सकती है। मानवी और गव्य दोनों प्रकार के कवकवेत्राणुओं में से किसी से भी रोग लग सकता है। इस रोग के प्रारम्भिक विक्षत वृक्क के बाह्यक में देखे जाते हैं परन्तु विक्षत के सामान्य स्थान बाह्यक मजक संगमस्थल या मजक के अङ्कुर हुआ करते हैं।
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