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विकृतिविज्ञान (११) दीर्घ अस्थियों में पर्यस्थि और अस्थिशिरीय भाग में शोथ होता है जिससे दबाने से दर्द और आमवात सदृश पीडा हो जाती है। अस्थिशिर के मध्यभाग से पृथक् होने के कारण कभी-कभी शाखाओं का कूटघात ( pseudo paralysis) हो जा सकती है। कपालास्थियाँ कहीं मोटी और कहीं पतली हो जाती हैं। पतला भाग दबाने पर वह शुष्क चर्मपत्र ( parchment ) वत् प्रतीत होती हैं, मोटा भाग दबाने पर गाँठ सदृश लगती हैं इन गाँठों को पैरट ग्रन्थि ( Parrot's nodes ) कहते हैं कभी-कभी अङ्गुलिपर्वपाक ( dactylitis ) होने से वे ताकार हो जाती हैं।
(१२) दन्तोद्भव देर से होता है या कभी-कभी जन्म के साथ भी दाँत निकल आते हैं।
(१३) तारामण्डलपाक ( iritis ) भी हो जाता है। (१४) मध्यकर्णपाक होने से शिशु बधिर हो जाता है । (१५) यकृत्प्लीहोदर हो सकता है।
(१६) अरक्तता ( anaemia ), अतिसार ( diarrhoea) आदि लक्षण भी मिल सकते हैं।
वर्धमानावस्थिक सहजफिरंग की अवस्था तब प्रारम्भ होती है जब फिरंगपीडित शिशु जीवित रहता है। क्षीरपावस्थिक फिरंग के लक्षण साल डेढ़ साल की अवस्था तक बालक में देखे जाते हैं। उसके बाद वे कुछ काल तक तिरोहित रहते हैं फिर ७ और १४ वर्ष की अवस्था में निम्न लक्षण मिलते हैं:
(१) स्थायी राजदन्त दन्तुरित ( notched ) होते हैं ये हचिंसन के दन्त कहलाते हैं तथा प्रथम चर्वणक ( molar ) गर्तयुक्त ( dome shaped ) देखे जाते हैं। इन्हें मून दाँत ( Moon's teeth ) कहते हैं। हचिसन दन्त सब रोगियों में नहीं निकलते तथा बीस साल की अवस्था के पश्चात् ठीक हो जाते हैं। मून के दाँत सब रोगियों में और सदा के लिए विकृत रहते हैं यही दोनों में अन्दर है।
(२) नेत्र के स्वच्छामण्डल में पाक ( keratitis) हो जाता है यह पाक पहले एक नेत्र में फिर दूसरे में होता है इसमें स्वच्छा घिसे हुए काच के समान हो जाती है।
(३) कर्णक्ष्वेड हो जाता है।
(४) अस्थियों में पर्यस्थपाक, नई हड्डी का बनना तथा अस्थि का खुरदरा और गाँठदार हो जाना मुख्य है ।
(५) सन्धियों में शूलरहित सन्धिकलापाक ( synovitis) देखा जाता है । यह विकृति जानुसन्धि में तथा अन्य बड़ी सन्धियों में होती है इसे क्लटन सन्धियाँ ( Clutton's joints ) कहते हैं। ____ उत्तरकालीन अवस्था में १५ वर्ष की आयु के उपरान्त होने वाले विकारों को लिया गया है ये विकार क्षीरपावस्थिक विकारों के ही प्रवृद्ध रूप होते हैं। कोई नवीन विकृति यहाँ नहीं मिलती । जैसे
(१) यदि शैशव में मुखकोणीय विचर्चिका (rhagades ) हो चुका हो तो
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