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विकृतिविज्ञान
किया करते हैं। यह विक्षत अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण दिखलाई नहीं देता। स्त्रियों में तो उसका पता चलना बहुत टेढ़ीखीर होता है। सुकुन्तलाणु क्षतविरहित स्वस्थ श्लेष्मलकला में होकर या चर्म में विदार होने पर उनमें होकर शरीर की ऊतियों में प्रवेश करता है। उपसर्गस्थल पर ही यह स्थानिक विक्षत बन जाता है । यह विक्षत मैथुन के एक मास पश्चात् बनता है। कभी-कभी डेढ़ मास पर्यन्त यह नहीं बनता। जब तक विक्षत बनना आरम्भ करता है उस समय तक यह रोग शरीर के प्रत्येक अंग में प्रसरित हो जाता है। उपसर्ग के स्थल पर ही सुकुन्तलाणुओं का प्रगणन होने लगता है और वे लसवहाओं तथा रक्तधारा से कुछ घंटों में ही अपना सम्बन्ध कर लेते हैं। इन्हें अपना कार्य करने में बहुत दिन न लगकर कुछ घंटे ही लगते हैं इसे समझना होगा क्योंकि मैथुन के पश्चात् लिंग वा योनि का प्रक्षालन विशोधक द्रव्यों के साथ शीघ्र हो करवा दिया जाना चाहिए। __ प्राथमिक विक्षत को कठिन संदंश या कठिन उपस्थव्रण ( hard chancre ) कहते हैं। यह पहले एक उत्कण ( papule ) के रूप में निकलता है और विनाशूल के बढ़ता है (पाठक ऊपर के श्लोकों से मिलाते चलें) और एक उन्नत गाँठ का रूप धारण कर लेता है। यह त्वचा या श्लेष्मलत्वचा पर बनता है। इसका आधार कठिन होता है तथा धरातल व्रणित होता है। साधारणतः यह धरातल स्वच्छ और आम ( raw ) होता है। यदि कोई द्वितीयक पूयजनक उपसर्ग लग जाता है तो यह एक आधूसरित मृत अपद्रव्य की झिल्ली से आवृत हो जाता है । यह दुअन्नी के बरावर बड़ा होता है और इसे हण्टरीय संदंश (Hunterian chancre) कहते हैं।
अण्वीक्षतया कठिन या हण्टरीय संदंश में कणनऊति का एक पुञ्ज होता है तथा स्पर्श में जो काठिन्य मिलता है उसका कारण व्रणशोथात्मक शोथ का मिलना है। उप अधिच्छदीय ऊतियों में सदैव गोल कोशाओं ( round cells), असंख्य प्ररस कोशाओं ( plasma cells) और मध्यमसंख्य बृहत् अधिच्छदीय कोशाओं की भरमार देखी जाती है। पूयकोशा तभी मिलते हैं जब पूयजनक उपसर्ग भी साथ-साथ उपस्थिति हो अन्यथा वे नहीं मिलते। मध्यम अंश में वहाँ तन्तुरुह परमचय ( fibroblastic hyperplasia ) भी मिलता है जिसके साथ में कुछ नये केशालों की भी निर्मिति होती है। महाकोशा कभी-कभी ही मिलते हैं अथवा नहीं मिलते तथा संदंश में ऊति मृत्यु वैसी नहीं होती जैसी कि प्राथमिक यक्ष्मिका में बतलाया जा चुका है।
___ यदि संदंश को दबाकर उसका यूष ( juice ) निकाला जावे और उस यूप में सुकुन्तलाणु देखे जावें तो वे बहुत बड़ी संख्या में उसमें मिलते हैं यही एक मात्र प्रमाण है कि यह उपसर्ग फिरंगजनित ही है।
इस प्रारम्भिक अवस्था में उपसृष्ट भाग की वाहिनियों में व्रणशोथकारी परिवर्तनों का श्रीगणेश होता हुआ देखा जा सकता है क्योंकि वहाँ सूजन आ जाती है और उनके अधिच्छदीय कोशाओं का परमचय होने लगता है। जो अधिच्छद संदंश
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