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फिरन
कृमिवाताभिघातैस्तु तदेवोपद्रुतं फलम् । पतत्यकालेऽपि यथा तथा स्याद्गर्भविच्युतिः ॥ जैसे कि कृमि से कृन्तित, वात से ताडित या अभिघात से पीडित फल वृक्ष से अकाल में गिर जाता है वैसे ही जीवाणुओं ( कृमि ), वातकारक भोषधियों और मानसिक अवस्थाओं ( वात ) अथवा चोट आघात ( अभिघात ) के कारण अकाल गर्भ भी गिर सकता है । सुकुन्तलाणु एक ऐसा ही कृमि या जीवाणु है जो गर्भरूप फल को अकाल में ही पतित कर देता है ।
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परन्तु फिरंगिणी स्त्री का गर्भ सदैव ही पतित हो यह आवश्यक नहीं, वहाँ एक Ists महाशय का नियम लागू होता है । वह नियम यह है कि अनेक बार गर्भधारण होने पर उत्तरोत्तर फिरंग की गर्भनाशक शक्ति घटती चली जाती है । इसका क्रम य रहता है
(१) सर्वप्रथम गर्भस्त्राव ' ( abortion ) । ( २ ) तत्पश्चात् गर्भपात' ( miscarriage )।
( ३ ) तदुपरान्त मृतगर्भजन्म ( still birth )।
( ४ ) तदनन्तर सजीव फिरंगी शिशु का जन्म ( syphilitic child's birth)। यह भी आवश्यक नहीं कि एक के पश्चात् दूसरे गर्भ में ये क्रम उपस्थित हों । एक दो गर्भस्राव होकर २-३ गर्भपात होते हुए १-२ मृतगर्भ जन्म होकर फिर फिरंगी शिशु उत्पन्न होता है । यह भी सम्भव है कि यह जो फिरंगी जीवाणु की उत्तरोत्तर गर्भनाशकता का हास होता जाता है उसके कारण पूर्णस्वस्थ फिरंगविहीन बालक का जन्म हो जावे ।
गर्भ की मृत्यु का कारण होता है गर्भ के यकृत्, फुफ्फुस, सर्वकिण्वी, उपवृक्क ग्रन्थियाँ तथा अन्य अंगों का असंख्य सुकुन्तलाणुओं द्वारा आक्रान्त होना । यकृत् और फुफ्फुस सबसे अधिक क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। मृत्यूत्तर परीक्षा में अनेक अंगों में विक्षत प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं ।
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फिरंगी माता से जब सजीव शिशु उत्पन्न होता है तब कभी तो उसको फिरंगोपसर्ग के कुछ प्रत्यक्ष देखने में आते हैं और कभी नहीं । वे चिह्न कुछ सप्ताह पश्चात् प्रकट हो सकते हैं । बाह्य फिरंग का प्रथम संदेश ( primary chancre ) उसमें नहीं मिलता । परन्तु आभ्यन्तर फिरंग तथा बहिरन्तर्भवफिरंग के अनेक विक्षत मिल सकते हैं । नियमतः शिशु के विकास का पूर्णतः मान्द्य ( retardation ) देखने में आता है जिसके कारण वह पतला दुबला तथा अरक्तिक ( anaemic ) दिखाई देता है उसकी चमड़ी लटकी हुई होती है जिसमें झुर्रियाँ पड़ी होती हैं । उसके पाणिपाद तलों के चमड़े पर विस्फोटक ( pemphigus ) उत्पन्न हुए आते हैं या बाद में उत्पन्न हो जाते हैं । उसके नितम्बों ( buttocks ) पर उत्कण ( papules ) तथा व्रण उत्पन्न हो जाते हैं तथा मुख कोणों पर विचर्चिका ( rhagades ) उत्पन्न हो जाती
१. आचतुर्थात्ततो मासात् प्रस्रवेद्गर्भविच्युतिः । ततः स्थिरशरीरस्य पातः पञ्चमषष्ठयोः ॥ ( सुश्रुत )