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विकृतिविज्ञान : यदि बाह्यकन्यासर्ग का यथोचित रूप में प्रयोग कराया जावे तो यह सम्भव है कि उपरोक्त अनेक लक्षण दूर हो जावेंगे परन्तु जो यक्ष्मोपसर्ग इन ग्रन्थियों में चलने लगता है उस पर कोई प्रभाव न पड़ने के कारण अन्ततोगत्वा प्राणनाश हो जाया करता है। यदि न्यासर्ग की अधिक मात्रा दे दी गई तो अधिक लवण शरीर में संचित हो जाने के कारण तथा केशालों की अतिवेधता को कम करने का इस न्यासर्ग का गुण होने के कारण शरीर पर शोफ ( oedema) बढ़ सकता है तथा रक्तनिपीडाधिक्य भी हो सकता है। । कालिचर्म या त्वचा के रंगे जाने को छोड़कर अन्य जितने भी लक्षण इस रोग में देखे जाते हैं उनका कारण क्षारातु का नाश, जलाभाव ( dehydration ) तथा नीरेयाभाव है। जिस प्रकार क्षारातु और नीरेय का पुनर्वृषण वृक्नालिकाएँ नहीं कर पातीं वैसे ही वे जल भी चूसने में असमर्थ रहती हैं जिसके कारण शरीर से बहुत बड़ी मात्रा में जलीयांश बाहर चला जाता है जिसके कारण जलाभाव हो जाता है तथा शोणसंकेन्द्रण ( haemoconcentration ) भी। । कालिचर्म ( melanoderma ) या त्वचाभिरंजना का क्या कारण है वह अभी तक अज्ञात है कदाचित् बाह्यकन्यासर्ग का अभाव होने के कारण त्वचा अपने प्रकृत वर्ण को स्थिर नहीं रख पाती और कालि ( melanin ) उसमें भरने लगता है। ब्लोच नामक विद्वान् ने इस विषय पर बहुत खोज की है। उसका कहना है कि द्वि उदजारदर्शल आसुवी ( dihydroxyphenylalanine ) या संक्षेप में द्विजादा (dopa ) एक विशेष जारेद ( oxydase ) के साथ मिलकर रंगे हुए क्षेत्र के कुछ कोशाओं के वर्ण को गहरा काला बना देता है। इस प्रतिक्रिया को वह द्विजादाप्रतिक्रिया ( dopa reaction ) कहता है। त्वचा में काला रंग आता है कालि ( melanin ) से । इस कालि का निर्माण होता है कालिरुह ( melanoblasts ) कोशाओं द्वारा एक विशेष किण्व की उपस्थिति में रक्त से कालिजन ( melanogen ) 'नामक वर्णहीन पदार्थ लिया जाता है और वह किण्व उसे कालि में परिणत करके स्वचा को रंग देता है। यह द्विजादाप्रतिक्रिया कालिरुहों और विशिष्ट किण्व की क्रिया को बतलाती है। यह प्रतिक्रिया अधित्वचा तथा केश कूपिकाओं में अत्स्यात्मक होती है तथा मध्यस्तरीय कोशाओं के लिए नास्यात्मक होती है। यह द्विजादा कालिजन तथा वृक्क (adrenalin ) दोनों से निकट का सम्बन्ध रखता है । जब उपवृक्कों में खराबी आती है तो द्विजादा वृक्ति न बनकर कालिजन बन जाता है और त्वचाओं या श्लेष्मलकलाओं के उन कोशाओं में जहाँ उसकी प्रतिक्रिया अत्स्यात्मक होती है कालि उत्पन्न करके वर्ण दे देता है । हम ब्लोच महोदय के द्वारा दिये गये मत का आदर करते हैं परन्तु वह आज ग्राह्य इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि वृक्ति का निर्माण ग्रन्थि के मज्जक में होता है और रोग ग्रन्थि के बाह्यक में है। दूसरा यदि यही उत्तर पर्याप्त होता तो जब पूर्णतः उपवृक्क ग्रन्थियों का उच्छेद कर दिया जाता है तब तो शरीर को कालाभूत-सा बन जाना चाहिए पर वह होता नहीं। इससे ऐसा लगता
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