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विकृतिविज्ञान ___ सर्वप्रथम इस रोग में कोशीय प्रतिक्रिया उसी प्रकार होती है जैसा कि अन्यत्र देखी जाती है। उसके पश्चात् किलाटीयन होता है तत्पश्चात् तरलन देखा जाता है। तरलन के कारण कई यक्ष्मविद्रधि बन जाती हैं जो वृक्कमुख (pelvis of the ki. dney ) में फूटती हैं । आगे चल कर वृक्क की ऊति का अत्यधिक भीषण विनाश होने लगता है जिसके कारण वृक्त का स्थान सघन तान्तव प्राचीर वाले गह्वरित कोष्ठक ( loculated cysts with dense fibrous walls ) ले लेते हैं। इन कोष्ठकों का आस्तरण यचमकणन ऊति द्वारा निर्मित होता है। इन कोष्ठकों में यमपूय भरा रहता है जो वृक्कमुख तक फैला रहता है। इस अवस्था को यक्ष्मपूय वृक्काणूत्कर्ष ( tuberculous pyonephrosis ) कहते हैं। जब यही दशा दोनों वृक्कों की हो जाती है तो मूत्र विषमयता (मूत्ररक्तता-uraemia) के कारण रोगी का प्राण निकल जाता है। किसी-किसी में मृत्यु के पूर्व सर्वाङ्गीण श्यामाकसम यक्ष्मा का पुट भी लग जाता है।
कभी-कभी जब वृक्क का अधिक विनाश नहीं हुआ रहता तब वृक्क स्तूपों (py. ramids ) में यच्म विवर बन जाते हैं उन स्तूपों से होकर उपसर्ग बाह्यक तक फैलता हुआ भी देखा जाता है उसके कारण उपप्रावरिक विद्रधियाँ ( subcapsular abscess) बन जाते हैं। जिस प्रकार उपसर्ग ऊपर की ओर आरोहण करता है उसी प्रकार यह नीचे की ओर अवरोहण भी करता है जिससे वृक्कमुख या वृक्कद्वार सदैव यक्ष्मा से पीडित हुआ पाया जाता है।
कभी-कभी किलाटीयन के साथ चूर्णीयन होकर अश्मरी निर्माण भी हो सकता है परन्तु यक्ष्मा वृक्काश्मरी कारक रोग नहीं माना जाता तथा अश्मरियाँ जो बहुधा देखी जाती हैं वे यक्ष्म नहीं होती।
यक्ष्मवृक्कों से उत्पन्न मूत्रप्रायः अम्ल प्रतिक्रिया वाला होता है यदि कोई अन्य पूयजनक उपसर्ग ऊपर से न चढ़ बैठे। ज्यों-ज्यों रोग बढ़ता जाता है यक्ष्म किलाटीयन के कारण प्राप्त अपद्रव्य उसमें बढ़ते जाते हैं जो मूत्र को गाढ़ ( thick ) तथा आविल ( turbid ) बना देते हैं। मूत्र में रक्त प्रारम्भ से ही आ सकता है उसका कारण वृक्क वाहिनियों का च्यवन ( leakage ) या अपरदन ( erosion ) कोई भी हो सकता है। मथित्रालोडित ( centrifugalised ) मूत्र की प्रत्यक्ष परीक्षा करने पर यक्ष्मादण्डाणु देख लिए जा सकते हैं पर वे बहुत कठिनाई से मिलते हैं। उनकी उपस्थिति निहारने के लिए उनका संवध या मूत्र का वंटमूष में अन्तःक्षेपण परमावश्यक हो जाता है। मूत्र में शेफमलीय जीवाणु ( smegma bacillus ) भी होते हैं वे यक्ष्मादण्डाणु के साथ सम्भ्रमित ( confused ) किये जा सकते हैं अतः उनका ध्यान रखते हुए इनका ज्ञान करना होगा।
मूत्र के साथ यक्ष्म अपद्रव्य का गमन बहुत अधिक हानिकारक देखा जाता है। जहाँ-जहाँ होकर वह जाता है (गवीनी, बस्ति इत्यादि ) वहाँ-वहाँ वह यक्ष्मोपसर्ग कर दे सकता है। इसके कारण गवीनियाँ (ureters ) मोटी पड़ जाती हैं, अनाम्य
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