________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विकृतिविज्ञान २-लसग्रन्थकों के विक्षत आन्त्र में ही होने वाले विक्षत होते हैं यद्यपि वे प्रत्यक्ष
तया नहीं दीख पाते। प्राथमिक विक्षत सर्वप्रथम संदंश ( ileocaecal ) क्षेत्र में उत्पन्न होता है जहाँ से फिर वह ऊपर या नीचे विक्षत उत्पन्न करता है । इस क्षेत्र में लसाभ ऊति अत्यधिक मात्रा में मिलती है और उसी में रोग का प्रारम्भ सर्वप्रथम होता है इसी से यहाँ उसका आरम्भ होना स्वाभाविक सा है।
पेयरसिध्मों (peyer's patohes ) तथा एकल लसकूपों ( solitary lym. phoid follicles ) में सर्वप्रथम सूचमग्रन्थकीय धूसरवर्ण के जो पहले पारभासी होते हैं पर जो आगे चलकर किलाटीयन से पीत पड़ जाते हैं ऐसे विक्षत बनते हैं। इनके ऊपर की श्लेष्मलकला लाल होती है। जब यह श्लेष्मलकला छूट-फूट जाती है तो गाध ( shallow), चीरित, विषमाकृतिक तथा दबे हुए किनारों वाले आन्त्र व्रण बन जाते हैं। इन व्रणों की भूमि उपश्लेष्मलकला द्वारा, आन्त्रपेशी द्वारा तथा कभी-कभी उदरच्छदकला द्वारा बना करती है। क्षुद्रान्त्र में व्रण पेशी तक जाकर उदरच्छद तक पहुँच जाता है। परन्तु बृहदन्त्र में पेशी के आगे वह बढ़ नहीं पाता इस कारण यहाँ उदरच्छद पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ पाता। कभी-कभी तो उण्डक से गुदपर्यन्त सम्पूर्ण बृहदन्त्र व्रणीभूत ( ulcerated ) हो जाती है। यह व्रणन लसवहाओं के द्वारा होता है । लसवहा इस भाग में अनुप्रस्थतया ( transversely ) बहा करती हैं। इसके कारण सम्पूर्ण आन्त्र में वलयाकार वणन होता है। मानो कि व्रण की एक मेखला बन गई हो । इसी से इसे मेखलाकारव्रण (girdle ulcer ) कहा जाता है। यह मेखलाकारव्रण अचल नहीं होता न स्थायी होता है वह आगे जाकर आन्त्र के दीर्घ अक्ष ( long axis ) में पड़ सकता है जब कि वह केवल एक पेयरसिध्म में ही सीमित हो जावे । व्रण के ऊपर स्थित लस्यकला की लसवहाओं में छोटी-छोटी यचिमकाएँ मिलती हैं जो प्रमाणित करती रहती हैं कि यह यक्ष्मोपसर्ग द्वारा बनाया हुआ व्रण ही है । ये यदिमकाएँ एक तन्त्विरहीय उत्स्यन्द (fibroblasticexudate) द्वारा आवृत रहती हैं। आन्त्रवणीय क्षेत्रों में अभिलाग ( adhesions ) प्रायशः देखने में आते हैं। अभिलागों के साथ कभी-कभी आन्त्र में ऐंठने (kinks ) भी देखने में आती हैं जो बद्धोदर ( obstruction of the bowel ) कर दे सकती हैं। आन्त्रिकयचमा का प्रमुख उपद्रव आन्त्रावरोध ही माना जाता है । वणन के साथ-साथ आन्त्रनिबन्धनीक लसग्रन्थक प्रवृद्ध हो जाते हैं। उनमें किलाटीयन कभी मिलता है और कभी नहीं भी मिलता।
अण्वीक्षण करने पर हमें किलाटीयन-अधिच्छदाभ एवं लसीकोशाओं की भरमार-महाकोशानिर्माणादि यथावत् मिलते हैं। यहाँ धमनियों में अभिलोपी अन्तश्छदीय पाक प्रायः होता है इसी कारण यहाँ रक्तस्राव अधिक नहीं पाया जाता । मल में थोड़ा सा जीवरक्त देखा जाता है पर उसका अर्थ बहुत बड़े रक्तस्राव का होना नहीं है।
For Private and Personal Use Only