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ज्वर
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प्रायशः सन्निपातेन दृष्टः पञ्चविधो ज्वरः । सन्निपाते तु यो भूयात् स दोषः परिकीर्तितः ॥ अतः पाँचों विषमज्वर के भेद प्रायशः त्रिदोषात्मक या सन्निवातज होते हैं यह मान कर चलना चाहिए पर प्रायः कहने से एक दोषज और द्विदोषज भी हो सकते हैं । तथा जेज्जट के ही शब्दों में
विकृति विषमसमवायरब्याः सन्ततादयः सन्निपातजाः, तेषामेवोद्भूतदोषेण व्यपदेशः; प्रकृतिसमसमवायारब्धस्त एकदोषज द्विदोषजा अपि भवन्तीति जेज्जटः ।
आगे हारीताचार्य का जो मत दिया है वह भी चातुर्थक को सान्निपातिक स्वीकार करता है । पित्तज चातुर्थक होता है या नहीं
अ - प्रकृति समसमवायारब्ध चतुर्थक पित्त के द्वारा नहीं हुआ करता ऐसा व्याधि स्वभाव है । जैसे कि पित्तज गलगण्ड नहीं होती उसी प्रकार पित्तज चातुर्थक भी नहीं होता यह एक मत है ।
आ— हारीताचार्य का निम्न मत है :
चतुर्थको नाम गदो दारुणो विषमज्वरः । शोषणः सर्वधातूनां बलवर्णाग्निनाशनः ॥ त्रिदोषजो विकारः स्यादस्थिमज्जगतोऽनिलः । कुपितं पित्तमेवं तु कफश्चैवं स्वभावतः ॥ शीतद्राहकरस्तीव्रस्त्रिकालं चानुवर्तते । सन्निपातसमुद्भूतो विषमो विषमज्वर : ऊर्ध्वं कायस्य गृह्णाति यः पूर्वं सोऽनिलात्मकः । पूर्वं गृह्णात्यधः कार्यं श्लेष्मवृद्धचतुर्थकः ॥
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कि चातुर्थक नामक रोग दारुण विषम ज्वर है जो सर्व धातुओं का शोषण करता है तथा शरीर के बल और वर्ण तथा अग्नि का नाशक है । यह त्रिदोषज विकार है इसमें वात अस्थि और मज्जागत हो जाती है पित्त भी कुपित होता है और कफ भी स्वभावतः प्रकोप करता है । यह शीत और दाहकारी तीव्र और तीनों कालों में होता है यह सन्निपातोत्थ विषमज्वर है । जो ऊर्ध्व शरीर में वेदनोत्पत्ति करता है वह कफात्मक चातुर्थक है तथा जो अधः काया में पहले आरम्भ होता है या वहाँ शूलोत्पत्ति करता है वह श्लेष्मात्मक चातुर्थक ज्वर माना जाता है । यहाँ हारीत ने ऊर्ध्वकाया और अधःकाया का विचार लेकर दो ही प्रकार के चातुर्थक माने हैं। पित्तात्मक दोष को इन्हीं दोनों के साथ अनुबन्ध रूप में ही माना है । वह यह तो कहता है कि वात पित्त और कफ तीनों का कोप चातुर्थक ज्वरकारी है और पित्त चातुर्थक ज्वरोत्पत्ति में प्रत्यक्ष काम लेता है इतना कहने पर भी स्पष्टतः पैत्तिक चातुर्थक वह भी नहीं लिख सका ।
इ–भेड ने पैत्तिक चातुर्थक पढ़ा है
आमाशयस्थः पवनो ह्यस्थिमज्जगतोऽपि वा । कुपितः कोपयत्याशु श्लेष्माणं पित्तमेव च ॥ ई - नागभर्तृ तन्त्र में पैतिक चातुर्थक का स्पष्ट निर्देश है :
ऊर्ध्वकार्यं तु यः पूर्व गृह्णाति सोऽनिलात्मकः । मध्यकायं तु गृह्णाति पूर्वं यस्तु स पित्तजः ॥ पूर्व गृह्णात्यधः कार्यं श्लेष्मवृद्धश्चतुर्थकः ।
इस प्रकार मध्यकाया में पैत्तिक चातुर्थक का विचार कोई असम्भव बात नहीं है । अतः चरक और सुश्रुत तो इस मत के हैं कि दो ही प्रकार का चातुर्थक होता है २६, ३० वि०
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