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ज्वर
३४३ तृतीयक और चातुर्थक में वाताधिक्य पित्तकृत औपत्यिक वा अद्यसमुत्थ होता है। वातबलासक और प्रलेपक में कफाधिकत्व रहता है जिन विषमज्वरों में मूर्छा का अनुबन्ध होता है वे प्रायः द्वन्द्वसमुत्थ होते हैं ऐसा किसी-किसी का मत है। ___ जब श्लेष्मा और वात ये दोनों रोगी के परिणाही भाग में रहते हैं तो विषमज्वर के आरम्भ में शीत आता है इनकी प्रशान्ति पित्त के द्वारा होने के लिए शरीर के अन्दरदाह होता है। जब त्वचाद्य परिणाही भाग में पित्त स्थित होता है तो ज्वर के आदि में दाह होता है उसकी शान्ति अन्दर शैत्य होने से होती है। ये दोनों दाह और शीतपूर्वक ज्वर संसर्गज होते हैं। उपसर्ग दोष के बिना ये नहीं हो पाते। जिस ज्वर के पूर्व में दाह हो वह कष्टदायक और कृच्छ्रसाध्य हुआ करता है । सम्पूर्ण शरीर को जो ज्वर गर्मी और गुरुता से प्रलिप्त कर देता है जिसमें ज्वर मन्द-मन्द और शीतपूर्वक होता है वह प्रलेपक कहा जाता है।
वात बलासकज्वर का वर्णन आगे हम पुनः करेंगे यह भी एक प्रकार का मन्दज्वर है इसमें रूक्षता, शोथ और अवसाद खूब पाया जाता है इसके कारण अंग स्तब्ध हो जाते हैं और यह कफाधिक्य से उत्पन्न होने वाला रोग है।
जिस ज्वर में वात और कफ दोनों समान होते हैं और पित्तहीन होता है उसे ज्वर प्रायः रात्रि में आता है और जिसमें पित्त और वात सम हों तथा कफ कम हो वह दिन में आता है।
जब शरीर में अन्नरस विदग्ध हो जाता है पर श्लेष्मा और पित्त व्यवस्थित रहते हैं तब आधी देह शीतल और आधी उष्ण रहा करती है। शरीर में जब पित्त दुष्ट हो जाता है तथा बाह्यभाग में श्लेष्मा व्यवस्थित हो जाता है तो सम्पूर्ण शरीर उष्ण और हाथ पैर ठण्डे हो जाते हैं। शरीर में जब शरीरस्थ श्लेष्मा दुष्ट या पित्त अन्दर व्यवस्थित हो तो शरीर में शीतलता पर हाथ पैर गर्म मिलते हैं। बहुधा हम देखते हैं कि विषमादिज्वरों में कभी हाथ पैर ठण्डे रहते हैं कभी गर्म रहते हैं कभी आधा शरीर गर्म मिलता है तो आधा शरीर ठण्डा। इन सबके लिए आयुर्वेद ने जो हेतु दिये हैं वे ही ऊपर स्पष्ट किये गये हैं इनके सम्बन्ध में और भी जो मिलेगा उसे हम पाठकों के समक्ष यथास्थान प्रकाशित करेंगे ।
चतुर्थ भाग में ज्वर के बेगोदय और वेग शान्ति का साहित्यिक रूपक बाँधा गया है।
सप्तविधज्वर सप्तधातुओं में से प्रत्येक में जब किसी रोग की व्याप्ति होती है तो रोग उसो धातु के नाम से पुकारा जाता है । इसी के समर्थन में भेल का
'यस्मिन्व्यापद्यते धातौ तस्मिन् व्याधीन् करोत्यथ ।' वाक्य है। ज्वर भी एक अत्यन्त कष्टकर व्याधि है और जब वह जोर्ण हो जाता है तो वह एक के पश्चात दूसरी धातु में व्याप्त हो जाता है। विविध धातुओं में होने के
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