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ज्वर
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सकते हैं रक्त में इनकी उपस्थिति केवल रोगी में ही मिलती है और एक बार अच्छी उपस्थिति मिल जाने पर फिर महीनों या वर्षों तक वे बने रहते हैं । ज्वर के आवे काल में रक्त के श्वेत कण १५ से २० हजार तक बढ़ जाते हैं । उषसिप्रिय कणों की संख्या अधिक देखी जाया करती है । वासरमैन की कसौटी यहाँ थोड़ी सी व्यक्त होती है । ज्वर के काल में ही रक्त में जीवाणु पाये जाते हैं, निर्ज्वरावस्था में नहीं ।
इस रोग में यकृत् और वृक्कों में अधिक अपजनन मिलता है यह रोग बहुत काल तक रहता है
ग्रन्थयः श्वयथुः कोथो मण्डलानि भ्रमोऽरुचिः । शीतज्वरोऽतिरुक्सादो वेपथुः पर्वभेदनम् ॥ रोमहर्षः स्र ुतिमूर्च्छा दीर्घकालानुबन्धनम् ॥ ( वाग्भट )
५- आवर्तकज्वर - ( Relapsing fever ) - यह ज्वर बोरेलिया या स्पाइरोनेमा नामक जीवाणु के द्वारा उत्पन्न होता और यूका अथवा किलनी के द्वारा फैलता है । इन दो जीवों के आधार पर यूकावह ( louse borne ) तथा किलनीवह ( Tick borne ) आवर्तकज्वर होते हैं । आवर्तकज्वर से ग्रस्त रोगी को जब यूका काटता है तो उसके आमाशय में जीवाणु प्रविष्ट हो जाता है वहाँ से २४ घंटे बाद शरीर के अन्दर पहुँचता है दो सप्ताह तक विशेष परिवर्तन होता रहता है जिसके बाद वे जीवाणु पुनः रोगोत्पादन सामर्थ्य से युक्त हो जाते हैं । खुजलाते -खुजलाते जब यह यूका जिसके शरीर में सहस्रों आवर्तक ज्वरकारी जीवाणु भरे हुए रहते हैं भर जाता है तो खरोंच स्थान में उसका रक्त लग जाया करता है और त्वचा उपसृष्ट हो जाती है । एकबार उपसृष्ट होने पर यूका आजीवन रोग का प्रसार करने में समर्थ रहती है । किलनी के द्वारा भी ऐसे ही रोग फैलता है। त्वचा से जीवाणु रक्त में पहुँच जाते हैं । ज्वरकाल में रोगी के त्वचागत रूप में वे पाये जाते हैं तथा निर्ज्वरकाल होने पर स्वचागत रक्त में वे न मिलकर आभ्यन्तरीय यकृत, प्लीहा, मस्तिष्क आदि अंगों में पहुँच जाते हैं। सज्वरावस्था में एकन्यष्टीय श्वेत रक्तकणों की वृद्धि होती है । कभी-कभी प्लीहा बढ़ जाती और कोमल हो जाती है उसमें कई ऋणात्र ( infarcts ) पाये जाते हैं । यकृत् में भी वृद्धि हो जाती है । हृदय और वृक्कों में मेघसमशोथ अथवा स्नेहापजनन देखा जाता है । नलकास्थियों में मज्जा का वर्ण रक्त हो जाता है ।
६ - प्लेग या वातालिका - यह रोग बैसीलस पेस्टिस से होनेवाला है । यह एक चूहों का रोग है। बीमार चूहे का खून पीनेवाला पिस्सू चूहे के मरने के बाद दूसरे स्वस्थ चूहे का खून चूसते समय उसे प्लेगाकुलित कर देता है । जब पिस्सू को चूहों का मिलना बन्द हो जाता है तब वह मनुष्य पर आक्रमण करता है । पिस्सू
के दंश से मनुष्यशरीर में प्रवेशस्थान पर एक छोटा विस्फोट या फफोला बन जाता रोग का आक्रमण सौम्य प्रकार
है
यह प्रतिक्रिया अधिक क्षमतावाले प्राणी में या जब
का होता है तभी प्रगट होती है । फफोले का तल और होकर फूल जाता है उसके नीचे की गम्भीर ऊतियों में
उसके समीप का भाग लाल कोशाओं की भरमार होकर
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