________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यक्ष्मा
कम हो तो छोटे-छोटे विक्षतों का सम्पूर्ण किलाटीय पदार्थ प्रचूषित हो जाता है तथा उसके परिणाह में स्थित संयोजीऊति कोशा शनैः-शनैः एक सघन तथा संकोचन शील तान्तवप्रावर ( fibrous capsule ) का निर्माण कर देते हैं। यदि विक्षत बड़ा हो और उसमें तरलन हो गया हो तथा वह बाह्य या आभ्यन्तर धरातल पर खुल गया हो तो वहाँ रोपण कणनऊति के निर्माण तथा तन्तूत्कर्ष द्वारा होता है। अन्त में वहाँ एक सघन व्रणवस्तु ( dense sear ) बन जाती है। इस व्रणवस्तु या तान्तवऊति के भाग में भी किलाटीय क्षेत्र मिल सकते हैं जिनमें गाढ ( inspissated ) या चूर्णियित किलाटीय पदार्थ देखा जा सकता है। ____अल्प उग्र जीवाणु द्वारा उत्पन्न यक्ष्मा में प्रतिक्रिया का किलाटीय होना आवश्यक नहीं है। वह केवल तान्तव भी रह सकती है। ऐसे अवसरों पर यदिमकाओं में केन्द्रिय महाकोशा तन्तुरूहों द्वारा घिरे हुए रहते हैं। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं में प्रभावित भाग तान्तविक स्थौल्य द्वारा घनीभूत कर दिया जाता है और इस यक्ष्मा को परमपौष्टिक यक्ष्मा (hypertrophictuberculosis) कहते हैं । परमपौष्टिक यक्ष्मा फुफ्फुस के तन्त्वाभ शोष ( fibroid phthisis ) में देखी जाती है जो बहुत कम होने वाली व्याधि है। तरुणों की उण्दुकीय-यक्ष्मा नामक व्याधि में भी यह मिल जाया करती है। जब वहाँ यह मिलती है तो वहाँ जब तान्तव ऊति का संकोचन प्रारम्भ होता है तो ऐसा लगता है कि मानो जीर्ण बद्धोदर ( chronic intestinal obstruction ) हो गया हो ।
तन्तूत्कर्ष तथा यक्ष्मदण्डाण्विक उग्रता ये दोनों एक दूसरे के प्रतीपानुपाती ( inversely proportional ) होते हैं। अर्थात् यदि तन्तूकर्ष अधिक होता है तो यक्ष्मा. दण्डाणुकी उग्रता कम होगी यदि उग्रता अधिक होगी तो तन्तूत्कर्ष कम होगा।
तन्तूत्कर्ष में जहाँ हमने तन्तुओं का उल्लेख किया है वहाँ साधारण श्लेषजनीय तन्तुओं ( collagenous fibres ) को ही समझना चाहिए। श्लेषजनीय तन्तुओं के अतिरिक्त एक सूक्ष्म तन्तु और होते हैं जिन्हें हम जालिकीय तन्तु (fibres of reticulin ) कहते हैं । जालिका ( reticulum ) नामक एक जाल ( network) अतिसूक्ष्म तन्तुओं का बना हुआ होता है जो फुफ्फुस तथा यकृत् दोनों में पाया जाता है और जिसका निर्माण जालि ( reticulin ) के तन्तुओं से होता है। यह जालि जालकान्तश्छदीयसंस्थान के कोशाओं द्वारा तैयार की जाती है। इसका प्रदर्शन रजत व्यापन ( silver imprgnation ) पद्धति द्वारा किया जा सकता है । इनके द्वारा जो जाल बनता है वह एक दूसरे से मिलता हुआ होता है तथा वह सम्पूर्ण उति का अतिवेध किये होता है। मिलर का कथन है कि यम-विक्षतों में इन जालिकीय तन्तुओं का भी जीवाणु उग्रता के साथ प्रतीपानुपात ही होता है। यदि रोग उग्र स्वरूप का है तो वहाँ जालिकीयतन्तुओं का अभाव होगा पर यदि रोगाणु में उग्रता कम है तो वहाँ ये तन्तु खूब देखे जा सकते हैं, इस दृष्टि से जालिकीय तन्तुओं की उपस्थिति तीव्रोपसर्ग में न मिलकर जीर्णोपसर्ग में डटकर देखी जाती है।
For Private and Personal Use Only