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यक्ष्मा
५२७ अत्यधिक रक्तान्वित कणन ऊति के द्वारा होता है । मजे की बात यह है कि यह कणन ऊति यक्ष्मा की साधारणतः औतिकीय रचना को प्रकट नहीं करती। इस कणन ऊति की कृपा से बेचारी सन्धायीकास्थि अपने स्थान से या तो छोटे-छोटे शल्कों ( flakes ) में या एक ही खण्ड ( piece ) में उखड़ जाती है। कास्थि के सन्धायी धरातल की ओर सन्धिकला से आकर यही कणन अति फैल जाती है और उसका अपरदन प्रारम्भ कर देती है जिससे उसमें स्थान-स्थान पर अनेक गर्तिकाएँ (pits) बन जाती हैं । इन सबका एक ही अर्थ है और वह यह कि सन्धायीकास्थि चकनाचूर (छिन्न-विच्छिन्न) हो जावे और उसका स्थान कणनऊति ले ले। वही होता है जिसके कारण सन्धि में अस्थि अनावृत (exposed ) हो जाती है। यह विनाशक क्रिया यहीं नहीं रुकती बल्कि यह खुले हुए अस्थिभाग विरलित अस्थिपाक ( rarefying, osteitis ) हो जाता है और फिर अपरदन होकर अस्थिमुण्ड का पूर्णतः विनाश हो जाता है और अस्थिमुण्ड विलुप्त हो जाता है। इस विनाशकाल की घोरावस्था आने के पूर्व एक बात यह हो सकती है कि अत्यधिक किलाटीयन के द्वारा यह कणन उति नष्ट कर दी जावे। उस दशा में अपरदन का कार्य कुछ विलम्ब से होता है।
इस उपरोक्त विनाशलीला में अस्थिरज्जुओं या स्नायुओं ( ligaments ) को भी अपना अभिनय करना पड़ता है। उनका मृदुभवन होने लगता है जिसके कारण वे खिंच जाते हैं और थोड़े समय बाद टूट जाते हैं जिसके कारण सन्धि विच्युति (displacement) हो जाती है। इसका एक उदाहरण जानुसन्धि की विच्युतित्रयी ( triple displacements of knee joint ) में देखा जाता है। यह विच्युति तब होती है जब जानुस्वस्तिका स्नायु ( crucial ligaments ) का विनाश हो जाता है। इसमें जानुसन्धि आसंकुचित हो जाती है जंघास्थि ( tibia) पश्चभाग की ओर विच्युत हो जाती है तथा उसकी अन्तर्धान्ति ( internal rotation) हो जाती है। ___ ग्रीन की दृष्टि में उत्स्यन्दन के कारण सन्धि में उदसंचय ( hydrops ) बहुत अधिक नहीं देखा जाता। सन्धिकला के परमचय के साथ वह उतना नहीं देखा जाता जैसा यक्ष्म उदरच्छदपाक काल में जलोदर के रूप में देखा जाता है। जो भी तरल सन्धिगुहा में एकत्र होता है वह यक्ष्म प्रकार का व्रणशोथात्मक स्राव ( infla. mmatory exudate of the tuberculous type ) मात्र है जैसा कि किसी भी लस्यकला में यक्ष्मोपसर्ग के कारण अन्यत्र देखने में आती है।
कभी-कभी सन्धि पर एक शीतविद्रधि उत्पन्न हो जाती है। जिसमें बहुत अधिक यक्ष्मपूय होता है जिसके कारण सन्धि खूब तन जाती है।
अन्य विद्वानों का मत यह है कि सन्धि-यक्ष्मा की ३ अवस्थाएँ होती हैं१-उत्स्यन्दनावस्था ( the stage of effusion)
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