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विकृतिविज्ञान
जाती है तथा वयस्कों को यक्ष्मा का उपसर्ग नहीं लगता तथा युवावस्था में जो यक्ष्मा देखी जाती है उसका कारण शैशवकालीन उपसर्ग होता है जो शरीर में ही fafe रहता है बाहर का उपसर्ग कोई प्रभाव नहीं रखता है । पर आज जो गवेषणाएँ इस विषय पर चल रही हैं उन्होंने इस वाद को भी व्यर्थ करके रख दिया है । यह तो सत्य है कि एक बार यमोपसर्ग होने से शरीर में प्रतीकारिता उत्पन्न हो जाती है पर यह भी सत्य है कि यह प्रतीकारिता शनैः शनैः समाप्त होती चली जाती है यदि बार बार थोड़ा थोड़ा यचमोपसर्ग न होता रहे । तथा यह भी सत्य है कि शरीर में निर्मित प्रतीकारिता इतनी बलशाली वस्तु नहीं है कि यक्ष्मा के पूर्णाक्रमण को झेल सके । पहले ऐसा अनुमान था कि यचमोपसर्ग के कारण जो प्राथमिक संयोग ( primary complex ) बनता था वह सभी बालकों में समान होता होगा पर आज यमपरीक्षण ( tuberculin test ) प्रणाली से यह पता चलता है कि १० - १५ प्रतिशत बालकों में उपसर्ग वृद्धि करता है । प्राथमिक उपसर्ग बालकों में न होकर युवाओं और वयस्कों में अधिक देखा जाता है और यह प्राथमिक उपसर्ग अधिकतर हानिरहित होता है। प्राथमिक उपसर्ग का लक्षण होता है घोणविक्षत जो बालक में सक्रियरूप ( aotive form ) में रहता है तथा वयस्क में रोपित रूप ( healed form ) में देखा जाता है । उत्तरजात विक्षतों का प्रकार एक न होकर अनेक होता है। उनका प्रकार रोगाणु की मात्रा तथा व्यक्ति की उसके प्रति प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है । प्रतिक्रिया का ज्ञान व्यक्ति में उत्पन्न प्रतीकारिता तथा अनूर्जा ( allergy) से होता है ।
ऊपर जितना ज्ञानपुंज दिया गया है उसकी ओर दृष्टिपात करते हुए यह कहना कि एक मनुष्य में यक्ष्मा होने पर क्या और कैसे होता है अत्यधिक कठिन है । जो घटनाएँ घटती हैं उनका अनुक्रम निम्न प्रकार का हो सकता है ।
१ - कोई भी शिशु अपने जन्म के साथ यक्ष्मा के विरुद्ध कोई प्रतीकारिता ( immunity ) लेकर नहीं आता ।
२- यदि शिशु को सहसा उग्र यचमादण्डाणु की अधिक मात्रा प्राप्त हो गई तो उसके शरीर में यक्ष्मा का सक्रिय रूप प्रकट हो जावेगा फुफ्फुस में श्वसनकीय लक्षण होने लगेंगे और तन्तूत्कर्ष जैसी प्रक्रिया को कोई अवसर नहीं मिल सकेगा । उसके फुफ्फुसों में जीर्ण दृढ प्राचीर गुहाएँ जैसी कि वयस्कों में देखी जाती हैं नहीं मिलेंगी । इस अवस्था में उसका शरीरान्त होना पूर्णतः सम्भव है ।
३ -- यदि शिशु को अल्पमात्र यचमोपसर्ग प्राप्त हुआ तो ( जो कि गोशाला के दुग्ध के द्वारा मिल सकता है ) छोटे-छोटे विक्षतों का वह निर्माण कर लेना है जो शनैः-शनैः रोपित हो जाते हैं । उनके रोपण के साथ ही साथ उसके शरीर में प्रतीकारिता उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती जाती है । यह प्रतीकारिता तब और बढ़ने लगती है जब वह गलियारों की धूल में लोटता और खेलता है क्योंकि ऐसा करने से उसको
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