________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यक्ष्मा
रूप धारण कर लेता है। यदि इन ग्रन्थिकाओं में से कोई किसी रक्तवाहिनी में फट जावे तो उसके कारण सर्वाङ्गीण या फौफ्फुसिक श्यामाकसम ( miliary) यक्ष्मा उत्पन्न हो जावेगी। यदि वही किसी बड़े क्लोमनाल में फट पड़े तो उसके कारण भी सम्पूर्ण फुफ्फुस में गाण्विक विक्षत बन जाते हैं। ये गाण्विक विक्षत प्राथमिक उपसर्ग को न प्रकट करके द्वितीयक या उत्तरजात उपसर्ग के द्योतक होते हैं। प्राथमिक उपसर्गकाल में फुफ्फुस में विवर निर्माण ( cavity formation ) नहीं होता। इसमें रोपण या तो चूर्णीयन (calcification ) द्वारा होता है अथवा यहाँ अस्थीयन (ossification ) होता है और वास्तविक अस्थि निर्मित होती है।
उत्तरजात उपसग-किसी भी मार्ग से शरीर में गया हुआ यक्ष्मादण्डाणु अन्ततोगत्वा फुफ्फुस के जीवितक तथा क्लोमनाल प्राचीर ( bronchial wall) में स्थित लसाभ ऊति द्वारा पकड़ा जाता है। दक्षिण फुफ्फुस इस रोग में जितना अधिक प्रभावित होता है उतना वाम फुफ्फुस नहीं जिसका कारण यह है कि कण्ठनाडी के साथ जितना दक्षिण क्लोमनाल का सीधा सम्बन्ध है उतना वाम क्लोमनाल का नहीं है। कोई भी कारण क्यों न हो। उत्तरजात उपसर्ग का विक्षत सदैव फुफ्फुस शीर्ष में देखा जाता है। फुफ्फुस की नोक (अग्र) से १-१३ इञ्च नीचे आकर यह विक्षत बनता है। चाहे रोग का प्रारम्भ अधोखण्ड में ही हो परन्तु विक्षत फुफ्फुसाग्र से थोड़ा नीचे यह विक्षत अवश्य बना करता है।
फुफ्फुमान में ही विक्षत क्यों बनता है इसके सम्बन्ध में अनेक मत हैं पर उनमें सर्वाधिक महत्व का मत डौक का है। उसका कहना है कि एक व्यक्ति को निरन्तर कई घंटे तक उच्छीर्ष अवस्था ( erect posture ) में खड़े रहना पड़ता है जिसके कारण फुफ्फुसशीर्षों में सदैव धमनीक निपीड ( arterial pressure ) कम रहा करता है जिसके कारण जारक का तनाव भी कम रहता है। जिन स्थानों पर जारक का निपीड कम होता है वहाँ यक्ष्मादण्डाणु प्रायः अपनी जड़ जमा लिया करते हैं इसी कारण फुफ्फुसाग्र यक्ष्मादण्डाणुओं के लिए सुखासन का कार्य करते हैं । एक रोग का नाम है द्विपत्रकीय संनिरोधोत्कर्ष ( mitral stenosis) इस रोग के कारण फुफ्फुस शीर्षों पर भी धमनिक रक्तनिपीडाधिक्य रहता है । इस रोग से पीडितों को यक्ष्मा का शिकार होते नहीं देखा जाना भी डौक के मत की पुष्टि करता है। है। हमारे देश में आचार्यों ने शीर्षासन को बुद्धिवद्धक और आयुप्रद बताया है। शीर्षापन करने से फुफ्फुसशीर्ष का धामनिक निपीड अवश्य बढ़ता है हो सकता है यक्ष्मादण्डाणुओं के सुखासन को नष्ट करना ही सर्वाधिक आयुप्रदाता मान कर ही ऐसा बतलाया गया हो।
कोई भी कारण हो, फुफ्फुपशीर्ष में हम सदैव उत्तरजातीय यक्ष्म विक्षत को पाते हैं। यह विक्षत कुछ काल तक सक्रिय रहता है फिर उसमें तन्तूत्कर्ष होने लगता है और थोड़े दिन बाद वह रोपित हो जाता है और उसके स्थल पर एक क्षुद्र, निम्नित, रङ्गित व्रणवस्तु रह जाती है। रंग का कारण यह है कि धूल के कणों को लादे हुए
For Private and Personal Use Only