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विकृतिविज्ञान
का भी जिक्र किया है । अब हम मनुष्य में प्राथमिक उपसर्ग और पुनरुपसर्ग का एक बार नये सिरे से विचार करते हैं । हमारे इस विचार करने का मसाला ऐंटन घोण नामक विद्वान् ने अपने १८४ शवों की परीक्षा द्वारा तैयार करके रख दिया है जिसे विश्व भर में सर्वत्र विचार्य विषय मान लिया गया है। उसे कोणहीम की यह बात याद थी कि यक्ष्मा के प्राथमिक उपसर्ग की प्रथम निर्देशिका प्रादेशिक लसग्रन्थिकाएँ हुआ करती हैं । इसी को लक्ष्य बनाकर जब अपनी खोज घोण ने आरम्भ की तो उसे ९२ ४ प्रतिशत बालकों के फुफ्फुसों में प्राथमिक विक्षत का पता चला। यह विक्षत २ से १ सेंटीमीटर की एक किलाटीय नाभि ( caseous focus ) होती है । यह फुफ्फुस के किसी भी प्रदेश में फुफ्फुसच्छद के नीचे होती है जिसके ऊपर संयोजी ऊति का एक प्रावर चढ़ा होता है जो उसकी शेष फुफ्फुस ऊति से पृथकता दर्शाता है। इसे लोक घोणविक्षत के नाम से पुकारता है । इस विज्ञत का सम्बन्ध एक बृहत्तर किलाटीय नाभि से होता है जो कि उस विक्षत से सम्बद्ध लसग्रन्थिक में बनती है । अपने परीक्षण काल में घोण ने यह भी देखा कि घोणविक्षत या प्राथमिक विक्षत का रोपण ८ से लेकर १४ वर्ष की आयु में होता है । रोपण के कारण वहाँ न केवल तान्तव ऊति ही बनती है अपि तु वास्तविक अस्थि का ही निर्माण हो जाता है । जिन नाभियों में फुफ्फुस में या उसकी लसग्रन्थिकों में अस्थि पाई जाती है उन्हें सदैव प्राथमिक विक्षत द्वारा बनी और यचमोपसर्ग के प्रथम प्रहार की निर्देशिका करके मान लेना चाहिए ऐसा उसका आग्रह है । यदि बालक में इस प्राथमिक वित्त का रोपण नहीं हुआ तो उत्स्यन्दन ( exudation ), किलाटीयन (caseation ) की क्रिया द्रुतवेग से चल पड़ती है लसग्रन्थिकाएँ किलाटीयित हो जाती हैं और फूटकर समीपस्थ क्लोमनाल ( bronchi) में चू पड़ती हैं जिसके कारण किलाटीय श्वसन ( caseous pneumonia ) फुफ्फुस के अधोखण्ड में बन जाता है और मृत्यु का कारण बनता है।
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प्राथमिक विक्षों पर ओपाई ने भी बहुत बड़ा एवं गवेषणात्मक कार्य करके दिखलाया है। उसने उन लोगों के शवों में से फुफ्फुसों के क्षरश्मिचित्र ( roentgen ray photographs ) लिए जो यक्ष्मा के अतिरिक्त अन्य किसी रोग से मर चुके थे । वह यह जानता था कि कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसे सभ्य संसार में शैशवकाल में यमोपसर्ग न हो तथा यचमोपसर्ग के कारण प्राथमिक विक्षत न बने। इसी की पुष्टि के लिए उसने यह खोज प्रारम्भ की। इस क्रिया से उसने सूक्ष्मतम चूर्णीयित ग्रन्थिकाओं का पता लगाया जिनमें प्राथमिक विक्षत बन चुका था । उसकी खोज के आधार पर संसार को २ प्रकार के विक्षतों का पता लगा । एक तो वे जिन्हें हम प्राथमिक विक्षत के नाम से पुकारते हैं और जो फुफ्फुस के किसी भी भाग में प्रगट हो सकते हैं तथा जिनके साथ किलाटीय या चूर्णीयित लसग्रन्थियों के विक्षत मिलते हैं इन्हें नाभीयविक्षत ( focal lesion ) कहते हैं । दूसरे वे विक्षत जिन्हें हम फुफ्फुसशीर्षविक्षत ( apical lesions ) कह सकते हैं जो
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