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यक्ष्मा
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सदैव फुफ्फुसशीर्ष ( apex of the lung ) में होते हैं जिनकी यह प्रवृत्ति नहीं होती कि वे प्रादेशिक लसग्रन्थियों पर प्रभाव डालें । ये विक्षत उत्तरजातविक्षत ( secondary lesions ) होते हैं ।
नाभीयविक्षत इतने सूक्ष्म होते हैं कि साधारण शवच्छेद करने पर वे मिलते नहीं । इन्हीं नाभीयविक्षतों की कृपा से यक्ष्म प्रतिकारक शक्ति मानव शरीर में प्रादुर्भूत होती है । पर यह शक्ति सीमित होती है जिसे अधिकमात्र उग्रयमदण्डाणु कभी भी नष्ट भ्रष्ट कर सकते हैं। उसने देखा कि प्रथम वर्ष के शिशुओं के तरश्मि चित्रों में नाभीयविक्षत का कोई पता नहीं लगता ar रश्मिचित्र तो तभी आता है जब वे रोपित हो जाते हैं । जीवन के प्रथम वर्ष
।
उसका कारण यह है कि विज्ञत
के
तो प्राथमिक क्षितों या इन नाभीयविक्षतों में उत्तरोत्तर किलाटीयन चलता रहता है । २ से लेकर ५ वर्ष की अवस्था के बालकों में से ४३ प्रतिशत में तरश्मिचित्र में नाभीय विक्षत उसे मिल गये अर्थात् इतने प्रतिशत शिशुओं में विक्षतों का रोपण पाया गया । २० वर्ष से ऊपर ८०-९० प्रतिशत में नाभीयविक्षत मिले तथा ३० वर्ष पश्चात् तो ये विक्षत शतप्रतिशत पाये गये। यह हम पहले कह चुके हैं कि. ओपाई द्वारा परीक्षित फुफ्फुस उन व्यक्ति के रहे जिन्हें यक्ष्मा का प्रकट रूप में रोग नहीं हुआ था । इससे स्पष्ट होता है कि प्रभु की कृपा ही हमारी रक्षा का कारण होती है अन्यथा जितने घातकस्वरूप के विक्षत इस विद्वान् को कभी कभी देखने को मिले हैं वे ही मारक सिद्ध हो सकते थे। कभी कभी जो व्यक्तियों को अहैतुक ज्वर, अनुधा, भारह्रास और दौर्बल्यादि देखे जाते हैं उनका इनसे सम्बन्ध रहता हो यह आश्चर्यजनक नहीं है ।
नाभीयविक्षत के साथ प्रादेशिक लसग्रन्थिकाओं का लिप्त रहना प्रथम यच्मोपसर्ग का प्रमाण होता है । फुफ्फुसशीर्षिविक्षत द्वितीयक या उत्तरजात उपसर्ग का. प्रमाण होता है । जब उत्तरजात उपसर्ग होता है तब तक प्रथम उपसर्ग के कारण बना व्रण रोपित हो जाता है। प्रथम और द्वितीय उपसर्गों में प्रत्यक्ष कोई भी सम्बन्ध नहीं होता कभी कभी तो एक विक्षत एक फुफ्फुस में और दूसरा दूसरे फुफ्फुस में देखा जाता है । प्राथमिक उपसर्ग १० वर्ष की अवस्था में देखने में आते हैं और ज्यों ज्यों अवस्था बढ़ती जाती है उनकी संख्या बढ़ती जाती है । फुफ्फुसशीर्षिविक्षत का रोपण भी हो सकता है तथा वे कुछ दिन प्रसुप्त ( latent ) भी पड़े रहकर फिर एकदम उत्तेजित हो सकते हैं। यून्शोल्म ने इस पर खोज की है और देखा है कि ५० प्रतिशत विक्षतों की प्रसुप्तावस्था ( period of latency ) १० वर्ष से भी ऊपर पाई जाती है ।
यक्ष्मा के सम्बन्ध में कुछ काल पूर्व जो वाद प्रचलित थे उनमें पर्याप्त अन्तर आता जा रहा है । पहले यक्ष्मा २ प्रकार की कही जाती थी एक शैशवकालीन और दूसरी यौवनकालीन । पर आज वैसा भिन्न करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । पहले एक वाद ऐसा चलता था कि सम्पूर्ण यक्ष्मा शैशवकाल में ही लग
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