________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यक्ष्मा
५३७
यह शंका किया जाना स्वभाविक है कि चाहे थोड़ी मात्रा में मानव शरीर में यक्ष्मा Curry प्रवेश करें वे तो प्रगुणित होकर चाहे जितने बढ़ सकते हैं अतः मात्रा की कल्पना करना व्यर्थ है । परन्तु सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि जितनी मात्रा में यक्ष्मादण्डाणु प्रवेश करते हैं उन्हें उस प्रीतकारिता शक्ति का सामना करना पड़ता है जोया की छोटी मात्रा द्वारा जीवन के प्रारम्भ काल में ही उत्पन्न हो चुकी होती है । मात्रा अधिक होने पर प्रतीकारिताशक्ति का बाँध तोड़ कर रोगकारी जीवाणु मनमाना आघात करने में समर्थ होते हैं । कम मात्रा होने पर शरीर की विजयवाहिनी शक्ति उनका कचूमर निकाल दे सकती है इसीलिए मात्रा की कल्पना कर लेने से अधिक विश्वसनीय परिणामों पर वैद्य पहुँच सकता है । मान लो कि एक बालक किसी ग्वाले की गाय का दूध पीता है जो यक्ष्मा से पीडिता है । एक दूसरा बालक एक गोशाला से दुग्ध पीता है जहाँ १०-२० प्रतिशत गायों में यक्ष्मोपसर्ग है । कौन से बालक को यक्ष्मा होने का अधिक भय हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर साधारण है | एकमात्र यक्ष्मा पीडिता गाय के दुग्ध में से एक पाव दुग्ध लेने पर जितने यक्ष्मा - दण्डाणु आवेंगे उतने एक पाव गोशाला के दुग्ध से आये दुग्ध में नहीं हो सकते क्योंकि गोशाला के दुग्ध में अन्य स्वस्थ गार्यो का दुग्ध भी सम्मिलित हो गया है। जिसने यमादण्डाणुओं की मात्रा को बहुत दुग्ध में बाँट दिया है । पहले बालक को जहाँ यक्ष्मा होना स्वाभाविक है दूसरे बालक में यक्ष्मा के प्रति प्रतीकारिता का जागृत होना उतना ही स्वाभाविक है क्योंकि अधिकमात्र यचमादण्डाणु जहाँ विनाशक कार्य करते हैं वहाँ अल्पमात्र यक्ष्मादण्डाणु शरीर में प्रतीकारिता वा विजयवाहिनी शक्ति को प्रोत्साहन देते हैं । एक क्षय पीडित रोगी के कमरे की वायु में जब कि चाहे जहाँ वह थूकता है जितने परिमाण में यचमादण्डाणु होंगे उतने बाजार की धूल में नहीं होंगे। इसी कारण जहाँ बाजार की धूल के अन्दर स्थित यचमादण्डाणुओं के श्वसन से प्रतीकारिता शक्ति जगेगी ( जैसा कि सड़क झाड़ने वाले हरिजन में भी देखा जाता है) वहाँ यक्ष्मी के समीप रुका हुआ प्राणी क्षयी की मौत से पहले ही अपने मरने की तैयारी कर लेगा । भारतवर्ष में हम यह प्रायः देख रहे हैं कि जिस कुटुम्ब में यक्ष्मा का एक प्राणी पड़ता है और मर जाता है वहाँ । एक के बाद दूसरा यक्ष्मा का शिकार बनता जाता है यहाँ तक कि उस परिवार का सत्यानाश हो जाता है । जो शिकार बनता है उसे अधिकमात्र उग्र यक्ष्मादण्डाणु की अत्यधिक प्राप्त हो गई है ऐसा मानकर चलना चाहिए तथा जो उस कुटुम्ब में बच गये हैं उनमें यक्ष्मा के प्रति प्रतीकारिता शक्ति बढ़ी है ऐसा मानना चाहिए, पुरदिलनगर (अलीगढ़) के समीप एक ग्राम अजगरा है वहाँ एक सम्पन्न यादवक्षत्रिय कुल में मेरे देखते-देखते चार मौतें हो चुकीं एक स्त्री पुनः रोग ग्रसित है और एक युवक पर प्रहार होने जा रहा है पर एक ६०-७० वर्ष की वृद्धा जो उस गृह में है उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ ईश्वर उसे चिरंजीविनी करे पर यह एक अच्छा उदाहरण है ।
I
प्राथमिक उपसर्ग और पुनरुपसर्ग के सम्बन्ध में इस समय हम विचार करते-करते मात्रा की कल्पना और उसके महत्व को समझ चुके हैं हमने प्राणियों पर हुए प्रयोगों
For Private and Personal Use Only