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यक्ष्मा
५३५ बदल सकता है। वायु मार्गों द्वारा रोग का प्रसार बहुत प्रसिद्ध नहीं है । रक्तधारा द्वारा प्रसार श्यामाकसम यक्ष्मा में देखा जाता है जब कि कोई तीव्र विक्षत किसी वाहिनी में फट जाता है और सर्वाङ्गों में व्याप्त हो जाता है।
यमदण्डाणुप्रकार-फुफ्फुसों में न केवल मानवी प्रकार का, अपि तु गव्य प्रकार का यमकवकवेत्राणु (mycobacterium tuberculosus) भी यक्ष्मोपसर्ग करने में समर्थ हो सकता है । पर गव्य प्रकार का यक्ष्मादण्डाणु यदि थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बराबर लिया जावे तो भी वह रोगोत्पत्ति करता हुआ नहीं देखा जाता । इसका एक उदाहरण नायड ने यह दिया है कि एकवार एक रजिस्टर्ड गोशाला से कुछ धनिक वर्गों को लगातार दुग्ध आता रहा और धनिक परिवारों के बालक-स्त्री-पुरुष सब डटकर वर्षों दुग्धपान करते रहे । एक बार संयुक्तराज अमेरिका की सरकार ने गोशाला की गायों का परीक्षण कराया और यचिमपरीक्षा ( tuberculin test ) द्वारा यह ज्ञात हुआ कि उनमें से ४५ प्रतिशत गायें यक्ष्मा से पीडित अतः वधार्ह हैं । आदेशानुसार उनको मार दिया गया और शवपरीक्षा द्वारा यह सिद्ध हो गया कि वे यक्ष्मापीडिता ही थीं। अब जिन परिवारों ने दुग्धपान किया था उनकी परीक्षा प्रारम्भ हुई और देखा गया कि सहस्रों में केवल एक ही ऐसा व्यक्ति मिला जिसे यथमोपसर्ग रहा । पर वह गाय द्वारा प्राप्त उपसर्ग है इसकी पुष्टि नहीं की जा सकी। यह उदाहरण इस कथन को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि अल्प मात्रा में गोयमदण्डाणु का भक्षण यमाकारक नहीं होता। उस गोशाला के अनेकों नियुक्तों ( employees ) ने बहुत मात्रा में और वर्षों उन गायों का दुग्ध पिया था पर उन्हें भी कुछ नहीं हुआ। इसका एक अर्थ यह भी है कि एक मात्र यक्ष्मादण्डाणु ही किसी शरीर में यक्ष्मा उत्पन्न कर नहीं सकता उसके लिए अन्य भी कारण होने चाहिए जब वे कारण भरपूर होते हैं तभी यक्ष्मादण्डाणु भी अपना चक्र चलाने में समर्थ हो पाता है। आयुर्वेद यक्ष्मा को त्रिदोपोस्थ और हेतु चतुष्ट्य के कारण मानता है
वेगरोधात् क्षयाच्चैव साहसाद्विषमाशनात् । त्रिदोषो जायते यक्ष्मा गदो हेतुचतुष्टयात् ॥
प्राथमिक उपसर्ग और पुनरुपसर्ग-यदि किसी स्वस्थ शूकर में यक्ष्मादण्डाणुओं का अन्तःक्षेपण कर दिया जावे तो १० से १४ दिन के भीतर उस स्थान पर एक ग्रन्थिका ( nodule ) निकलती है जिसमें उस स्थान के अन्तश्छदीय कोशा प्रगुणित हुए पाये जाते हैं। थोड़े समय पश्चात् वह प्रन्थिका फूट जाती है और वहाँ एक व्रण बन जाता है जिसका रोपण कभी नहीं होता क्योंकि शूकर में यक्ष्मा को विनष्ट करने के लिए तनिक भी प्रतीकारिता नहीं रहती। थोड़े समय पश्चात् उस स्थान के समीप की (प्रादेशिक) लसग्रन्थियाँ उपसृष्ट होकर उनमें अतिशीघ्र किलाटीयन होने लगता है। यह घटना इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है कि इससे प्राथमिक उपसर्ग के आसन ( seat ) का पता लग जाता है। प्रैविक ग्रन्थियों के उपसृष्ट होने पर तुण्डिका में, कण्ठश्वासनालीय
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