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विकृतिविज्ञान ये तन्तु आगे जब अधिक काल तक रहते हैं तो सघन और स्थूल होकर तान्तव ऊति की श्लेषजन में परिणत हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त जालकीय तन्तुय चिमकाओं का भी अतिवेध ( permeation ) कर डालते हैं। ये महाकोशाओं के साथ निकट का सम्बन्ध रखते हैं तथा किलाटीय क्षेत्रों में जहाँ साधारण अभिरंजना पर कुछ भी नहीं मिलता रजत व्यापी अभिरंजन करने पर ये उन विनाश को प्राप्त ऊतियों में भी खूब देखे जाते हैं। इस प्रकार जालिकीय तन्तुओं की उपस्थिति या अभाव देख कर व्यक्ति की प्रतीकारिता शक्ति का पता लगाया जा सकता है।
चूर्णियन यह पुराने ( जीर्ण) और सीमित यक्ष्मविक्षतों में होने वाली प्रक्रिया है। किलाटीयन के पश्चात् चूर्णियन ( calcification ) होता हुआ देखा जाता है जब किलाटीय क्षेत्र पर प्रावर चढ़ गया हो और उसके अन्दर का किलाटीय पदार्थ प्रचूषित हो गया हो उस समय इस दधिकसम पदार्थ में चूने के लवण (चूर्णातुलवण) निस्सादित हो जाते हैं जो उसे या तो एक विषयाकृतिक पाषागवत् पिण्ड (stony body) में बदल देते हैं या एक रवादार (gritty ) पुंज में परिणत कर देते हैं। हम ऐसा परिवर्तन फुफ्फुस में भी कभी-कभी पाते हैं तथा आन्त्रनिबन्धनीक किलाटीय लसग्रन्थियों में भी देखते हैं।
वाहिन्य परिवर्तन वाहिनीयपरिवर्तन जो यक्ष्मा में देखा जाता है उसका नाम है अभिलोपी धमन्यन्तश्छदपाक ( obliterative endarteritis ) यह पाक सुरक्षात्मक है। होता यह है कि जहाँ पर यदिमका बनती है वह स्वयं तो वाहिनियों से विरहित होती है तथा उसके आस-पास की वाहिनियों पर यक्ष्मविष का प्रभाव पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप धमनियों के अन्तश्छद के कोशा प्रगुणित होने लगते हैं और कई-कई स्तर मोटे हो जाते हैं । उनके बहुत मोटे होने के कारण धमनियों के सुषिरक भी छोटे पड़ते जाते हैं और अन्त में वहाँ रक्त का एक आतंच जम जाता है जो उसके मुख को पूर्णतः निगित (plugged ) कर देता है। यह वाहिन्य परिवर्तन सुरक्षात्मक (protective) इस दृष्टि से होता है कि एक तो इस प्रकार बन्द हुई धमनी की प्राचीरों को चाहे यक्ष्मऊति-नाशक्रिया कितनी ही हानि पहुँचावे उससे रक्तस्राव नहीं हो सकता; दूसरे इस पद्धति द्वारा यक्ष्मादण्डाणुओं को रक्तधारा में पहुँच कर खुराफात करने का अवसर नहीं मिल पाता । ऐसा ही परिवर्तन फिरंग में भी देखा जाता है जिसका वर्णन अगले अध्याय में किया गया है।
यदि कोई यह समझ ले कि ऊपर जो महाकोशा निर्माण, किलाटीयन, तन्तूत्कर्ष तथा अभिलोपी धमन्यन्तश्छदपाकादि विकृतियाँ बतलाई गई हैं वे केवल यक्ष्मा में ही होती हैं तथा अन्यत्र कहीं नहीं देखी जाती तो यह उसकी भूल है एवं अज्ञानता की घोतक है। ये सब परिवर्तन तो प्रत्येक जीर्ण व्रणशोथात्मक अवस्था में मिल
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