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यक्ष्मा
यक्ष्माङ्गुलिपर्वस्थिपाक (Tubrculous dactylitis )
यह भी यह अस्थिमज्जापाक का प्रकार है । यह किसी अङ्गुलिपर्व के अस्थिदण्ड ( shaft ) में देखा जाता है । इसके होने पर अङ्गुलिपर्व में प्रसरशोथ ( diffuse swelling ) हो जाती है । पर्वस्थि का विनाश और पर्यस्थीय नूतन अस्थि का का विकास होता है । नूतनास्थिनिर्माण के कारण ही पर्व सूज जाता है । जो विकृति सूचक परिवर्तन अन्यत्र इस रोग में देखे जाते हैं वे ही सब यहाँ भी होते हैं । कभी कभी सहज फिरंगियों के अङ्गुलिपर्वों में जो सूजन होती है वही इसे मान लिया जाता है क्योंकि दोनों के नैदानिक लक्षण एक सदृश देखने में आते हैं ।
अस्थ्यशना साधारणी
यह यक्ष्म अस्थि- पर्यस्थपाक का एक विरल उदाहरण है । यह प्रायः अंससन्धि ( shoulder joint ) में विशेष करके बाह्रस्थि शीर्ष ( upper end of the humerus ) पर देखी जाती है । इसमें प्राचीन अस्थि का विरलन और पर्यस्थि से नूतनास्थि का निर्माण नामक दोनों क्रियाएँ होती हैं । इसमें किलाटीयन और तरलन नामक दोनों क्रियाएँ नहीं होने के कारण ही इसे अस्थ्यशना साधारणी ( caries sicca ) नाम दिया गया है। इस रोग में कणन ऊति तन्वित ( fibrosed ) हो जाती है, अस्थिक्षय और अस्थिप्रचूषण पर्याप्त होता है। साथ में समीपस्थ मृदुल भागों का भी क्षय होता है ।
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कशेरुकीय यक्ष्मा [ पौटामय ]
यह एक शैशवकालीन रोग है जो प्रायः ६ वर्ष और उससे नीचे के शिशुओं में मिलता है । यक्ष्मविक्षत कशेरुका ( vertebra ) के पिण्ड ( body ) में या दोनों में से किसी एक अस्थिशिर पट्ट ( epiphyseal plate ) में मिलता है । इसमें एक से अधिक कशेरुका प्रभावित होती हैं । विरलन ( rarefaction ), किलाटीयन तथा तरलन ये तीन प्रक्रियाएँ होती हैं । कशेरुका के बाहुप्रवर्धनक ( transeverse processes of the vertebra ) तथा सन्धिप्रवर्धनक ( articular processes of the vertebra ) पर यक्ष्मा का प्रभाव देखने में नहीं आता है । अन्तर्कशेरुकीय बिम्ब ( intervertebral discs ) अस्थि के समान ही विनष्ट हो जाती हैं ।
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यतः सुषुम्नास्तम्भ या पृष्ठदंड ( spinal column ) पर ही सम्पूर्ण शरीर का भार सधा हुआ है अतः इसके किसी कशेरुका के विनाश का अर्थ विरूपता ( deformity ) में होता है। यह विरूपता कोणीय वक्रता (angular curvature) नामक होती है तथा कोण की नोक पश्चमुखी ( pointing posteriorly ) होती है । इस वक्रता के कारण सुषुम्नाकाण्ड संपीडित ( compressed ) नहीं होता । परन्तु कणन aft की अधिकता तथा पश्चस्नायु में यक्ष्मपूय की अत्यधिक सञ्चिति के कारण सुषुम्ना का संपीडन हो सकता है । सुषुम्ना के संपीडित होने का परिणाम यह होता है कि विक्षत के नीचे के भागों द्वारा पूर्त अंगों का घात हो जाता है और कभी-कभी तो