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विकृतिविज्ञान
है तो वह मृतास्थिलव ( sequestrum ) कहकर पुकारा जाता है । प्रायः इस प्रकार मृतास्थि के छोटे-छोटे लव (टुकड़े ) अस्थि से पृथक् होते रहते हैं । जब तक यह प्रक्रिया पर्याप्त तीव्र नहीं होगी तब तक अधिक बड़े टुकड़े गलकर पृथक नहीं हो सकते । कभी-कभी तो सम्पूर्ण अस्थिशिर तक मृतास्थिलव के रूप में गल जाता है । ऊर्वस्थि ( femur ) का शीर्ष इस प्रकार विशीर्ण होते हुए देखा गया है । मृतास्थि aat की दण्डिकाएँ सदैव स्थूलित मिलती हैं जो यह प्रकट करती हैं कि जीर्ण व्रणशोधात्मक क्रिया उनमें चलती रही है । उसी क्रिया के बाद में जो परिवर्तन होते हैं। उन्हीं से अस्थि की मृत्यु या नाश ( necrosis ) होता है । कभी-कभी मृतास्थिलव बहुत मृदुल एवं भिदुर होते हैं और उनमें विरलीभूत ( rarefied) अस्थि लगी हुई मिलती है । कभी-कभी इस विरलीभूत अस्थि में बढ़े हुए रिक्त अवकाशों की वस्तुओं का चूर्णीयन हो जाता है ।
इन सब अवस्थाओं में एक विद्रधि अवश्य बन जाती है । विद्रधि ऊतिनाश के साथ भी हो सकती है तथा बिना उसके भी देखी जा सकती है । गुच्छगोलाणुजन्य अस्थिमज्जापाक से रक्षा करने में जितना अस्थिशिर ( epiphysis ) कार्य करता है उतना यचमअस्थिमज्जापाक में कार्य नहीं करता । यक्ष्मा के जीवाणु विना अस्थिशिरस्थ ऊति का लोहा माने सटासट अस्थि की ओर बढ़े चले जाते हैं । यक्ष्मा अस्थिशिरीय पट्ट (plate ) का अपरदन करते हुए सन्धायीकास्थि तक पहुँचता है जिससे सन्धि भी यमाग्रस्त हो जाती है । कभी-कभी पहले सन्धि से रोग लगकर फिर अस्थि तक जाता है । अस्थि में उपसर्ग दो दिशाओं में बढ़ता है । एक पर्यस्थि की ओर और दूसरा अस्थि की मज्जकगुहा ( medullary cavity ) की ओर बढ़ता है ।
ज्यों ही पर्यस्थिपट्ट पर यक्ष्मोपसर्ग का प्रभाव पड़ा कि अस्थि की वृद्धि होने लगती है । पर्यस्थि की वृद्धि के भी २ कारण हैं और दोनों ही इसकी वृद्धि में उत्तरदायी हैं । पहला यह कि यक्ष्मकणनऊति की वृद्धि होने लगती है जो पर्यस्थि के गम्भीर स्तरों में देखी जाती है । उसी के साथ साथ निकुल्या ( Haversian canal ) की भी वृद्धि होती है । दूसरा यह कि पर्यस्थि के अन्दर रक्ताधिक्य हो जाने के कारण नई अस्थि का निर्माण भी होने लगता है । यचम पर्यस्थिपाक में नवीन निर्मित अस्थि सदैव छष्ट हुआ करती है, वह छिद्रिष्ठ नूतन अस्थि प्राचीनअस्थि के साथ दृढता से आबद्ध रहती है तथा वह तोरणों ( arches ) के रूप में जमती है । तोरणों के भीतर के अवकाशों में यक्ष्मकणनऊति भरी रहती है । आगे चलकर इस नूतन अस्थिभाग को किलाटीयन नष्ट कर सकता है इस कारण विज्ञतों के किनारों पर जहाँ austus विष घातक प्रभाव करने में असमर्थ रहता है और केवल प्रक्षोभक प्रभाव मात्र दिखाता है वहाँ यह अच्छे प्रकार से प्रगट होती है । साधारणतः इन सम्पूर्ण अवस्थाओं में एक यक्ष्मविद्रधि बन जाती है जिससे एक नाडीव्रण चल पड़ता है जिसका एक मुख अस्थि के अन्दर रहता है और दूसरा बाह्य त्वचा पर खुलता है ।
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