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विकृतिविज्ञान प्राप्त कर अब हम विविध अंगों में इस महाविनाशक व्याधि से होने वाले कुप्रभावों का वर्णन उसी प्रकार आगे करेंगे जैसा कि व्रणशोथ के सम्बन्ध में कर चुके हैं।
अस्थियों पर यक्ष्मदण्डाणु का प्रभाव [ अस्थियक्ष्मा]
अस्थिक्षये स्थिशूलं दन्तनखभङ्गो रौक्ष्यं च । ( सुश्रुत )
अस्थन्य स्थितोदः सदनं दन्तकेशनखादिपु । ( वाग्भट ) अस्थिक्षय में आयुर्वेद अस्थिशूल, दाँत, नख और केश का पतन हो जाना और रूक्षता मानता है।
अतिगतयक्ष्मा (Bone tuberculosis) रक्तधारा के द्वारा होने वाला एक रोग है जिसका कारक बालकों एवं तरुणों में प्रायः गव्यकवकवेत्राणु हुआ करता है। पहले तो रोग की नाभि किसी अन्य स्थल पर या किसी अस्थिसन्धि में बनती है वहाँ से रक्तधारा द्वारा उपसर्गकारी जीवाणु अस्थि में आश्रय ग्रहण करके इस रोग को उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त करते हैं। यक्ष्मादण्डाणु द्वारा जो विक्षत अस्थि में उत्पन्न किए जाते हैं वे सभी विनाशक ( destructive ) ही होते हैं। इसके विपरीत अस्थि फिरंगीय सम्पूर्ण विक्षत प्रगुणात्मक (proliferative ) और उत्पादक ( productive ) देखे जाते हैं।
तीव्र सर्वाङ्गीण यक्ष्मा होने पर अस्थियों और सन्धियों दोनों में ही श्यामाकसम यक्ष्मिकाओं ( miliary tubercles ) की उपस्थिति पाई गई है। अस्थियों के छिद्रिष्ठ ( cancellous ) भाग में और सन्धियों की श्लेष्मलकला ( synovia) तथा उपश्लेष्मल ऊतियों में यह देखी जाती है।
यम-अस्थि-मज्जापाक छिदिष्ठ अस्थि का जीर्ण यक्ष्मज व्रणशोथ जिससे पर्यस्थि भी शीघ्र ही या विलम्ब से प्रभावित होती है यक्ष्मअस्थिमज्जापाक ( tuberculous osteomyelitis) कहलाती है। यह रोग अस्थियों में निम्न स्थानों में लग सकता है
१. लम्बी अस्थियों के अगों ( ends ) पर । २. कशेरुकाओं ( vertebrae ) में। ३. पादकूर्चास्थियों ( tarsal bones ) में । ४. मणिबंधीय ( carpus ) अस्थियों में। ५. अंगुलिपस्थियों ( phalangeal bones ) में।
इन स्थानों के अतिरिक्त हस्त-पाद की शलाकाओं ( metacarpal and metatarsal bones ) में तथा पर्युकास्थियों ( ribs ) में यह रोग बहुत कम देखा जाता है तथा लम्बी अस्थियों के दण्डों ( shafts ) में तथा करोटि की अस्थियों में यह रोग बिल्कुल नहीं देखा जाता है ।
यमअस्थिमज्जापाक का विक्षत सर्वप्रथम अस्थि में निर्मित होता है पर्यस्थि में नहीं। इसकी उत्पत्ति पहले पहल अस्थिशिर (epiphysis) या उपास्थिशिर
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