________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यक्ष्मा
५१५ सकते हैं। विशेष करके ये जीर्ण औपसर्गिक कणार्बुदों ( chronic infective granulomata. ) या जिन्हें विशिष्ट कगार्बुद ( specific granuloma ) कहते हैं वहाँ प्रायशः मिलते हैं । यक्ष्मा, फिरंग, कुष्ठ, किरण कवक एवं अश्वग्रन्थि (glanders ) ऐसे ही रोग हैं जहाँ ये विकृतियाँ देखी जा सकती हैं। यद्यपि इन सब में रोग के कर्ता विभिन्न प्रकार के जीवाणु हैं परन्तु इनके विक्षतों में जो समान मोटी मोटी बातें होती हैं वे यह बतलाती हैं कि औतिकीय प्रतिचार ( response ) के अतिरिक्त भी कोई ऐसा कारक है जो इन सब में समान रूप से उक्त समान परिवर्तनों को करने के लिए उत्तरदायी है। ये सब परिवर्तन बहुत धीरे धीरे होते हैं और प्रारम्भ में मुख्यतः अधिच्छदीय धरातलों पर देखे जाते हैं। ऐसा ज्ञात होता है कि इस समानता का कारण जीवाण्विक अनूर्जा (( bacterial allergy ) है ।
यक्ष्मानुहृषता तथा प्रतीकारिता यह भले प्रकार बतलाया जा चुका है कि जातियों और व्यक्तियों में उपसर्गों के प्रति कमाधिक अनुहृपता ( susceptibility ) होती है। एक ही जाति में या व्यक्ति में विभिन्न आयु पर भी उपसर्ग के प्रति अनुहृषता में अन्तर देखा जाता है यह अन्तर कितना और कैसा है वह उस उपसर्ग द्वारा उत्पन्न विक्षत को देखने से जान लिया जा सकता है । इस विषय का विशेषाध्ययन घोण तथा ओपाई ने किया है। उन्होंने दो विशिष्ट प्रकार के फुफ्फुसविक्षतों को बतलाया है। उनमें एक को घोण विक्षत (ghon lesion) नाम दिया गया है और दूसरे को उत्तरजात विक्षत कहा जाता है। __ घोण विक्षत का दूसरा नाम प्राथमिक जटिलता ( primary complex ) भी है। यह विक्षत बालकों में अत्यधिक तथा तरुणों एवं वयस्कों में कम देखा जाता है। प्राथमिक जटिलता (घोणविक्षत ) में एक किलाटीय नाभि होती है जिसका व्यास आधा या एक प्राङ्गुल (इञ्च ) होता है। यह फुफ्फुस के अग्र ( apex ) पर न होकर उसके परिणाह भाग में बनता है और इसका सम्बन्ध फुफ्फुसवृन्तयु या फुफ्फुसद्वार ( hilum ) में स्थित लसग्रन्थियों के यमविक्षत के साथ होता है। यह विक्षत भी उन्हीं ग्रन्थियों में बनता है जो घोणविक्षतीय भाग का लसीय उत्सारण करती हैं। क्योंकि घोणविक्षतकालीन रोगी की अवस्था ऐसी होती है जब उसमें प्रतीकारिता शक्ति का अभाव होता है यह विक्षत द्रुतगति से फैल सकता है और उस प्रदेश की सम्पूर्ण लसग्रन्थियों को उपसृष्ट कर सकता है । यह विक्षत न तो फुफ्फुस में विवर निर्माण करता है और न इसके कारण उपसर्ग का स्थानसीमन (localisation) करने वाला तन्तूत्कर्ष ही हो पाता है। यदि जीवाणु अत्युग्र है और पर्याप्त मात्रा में प्रविष्ट किया गया है तो रोग का सर्वाङ्गीण प्रसरण (generalised dissemination) होकर रोगी की मृत्यु हो जाती है। परन्तु, यदि मात्रा अल्प हुई और प्राकृतिक प्रतीकारिता शक्ति उसका प्रतिरोध करने के लिए पर्याप्त हुई तो विक्षत का रोपण होने लगता है
For Private and Personal Use Only