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विकृतिविज्ञान बढ़ जाती है। उसमें अत्यधिक रक्ताधिक्य ( congestion ) हो जाता है। यह रक्ताधिक्य और वृद्धि कभी कभी बिल्कुल भी नहीं पाई जाती। जीर्ण रोगियों में भी वह नहीं मिला करती। प्लीहा की रक्तवाहिनियाँ रक्त से रुंध जाती हैं अपने प्रकृत आकार से वृद्ध होने के कारण इसे आन्त्रिक ज्वरजन्य तीव्र प्लैहिकार्बुद (acute splenic tumour of typhoid ) भी कहा जाता है। रोग के प्रथम सप्ताह में यह प्लैहिकार्बुद काफी कड़ा होता है। दूसरे सप्ताह में मृदु होने लगता है जो तीसरे सप्ताह में पर्याप्त मृदु हो जाता है। इसकी गाढता अर्द्धतरलीय होती है। प्लीहा का प्रावर ( capsule ) पर्याप्त तना होने के कारण थोड़े पीडन से फट तक सकता है। आरम्भ में ही यदि प्लीहा को काट कर देखा जाय तो वह असित रक्तवर्ण ( dark red ) की मिलेगी। सप्ताहोपरान्त मालपीधिपन पिण्ड बड़े हो जावेंगे। इन पिण्डों की जालकीयकोशाओं में परम पुष्टि होने के कारण वे कुछ नष्ट भ्रष्ट भी हो सकती हैं प्लीहा में स्थान स्थान पर आन्त्रिकज्वर दण्डाणुओं के समूह भी एकत्र हुए देखे जाते हैं। प्लीहा में स्थान स्थान पर नाभ्य ऊतिनाश ( focal necrosis ) के क्षेत्र पाये जाते हैं इन क्षेत्रों की तुलना ग्रीन ने अरक्तताजन्य ऋणास्रों (infarcts due to anaemia) से की है।
स्नैहिकस्रोतसाभों ( sinusoids ) में सक्रिय परमपुष्टि जालकान्तश्छदीय कोशाओं की होती है। इन्हीं वाहिनियों में अनेक अन्तश्छदीय एकन्यष्टिकोशा इकठे हुए पाये जाते हैं। ज्वर के समाप्त हो जाने पर रक्ताधिक्य या अधिरक्तता समाप्त होती जाती है और कुछ तन्तूत्कर्ष होता हुआ देखा जाता है।
यकृत-आन्त्रिक ज्वर में यकृत् का भी आकार बढ़ जाता है। यकृत् के स्रोतसाभों में भी प्लीहा की ही भाँति अनेक एकन्यष्टिकोशा एकत्र होते हैं और विभजन ( mitosis ) द्वारा ही तैयार होते हैं। इन कोशाओं की बढ़ोतरी के कारण यकृत् कोशाएँ चारों ओर से उनसे घिर जाती हैं। इन घिरी हुई कोशाओं का तीसरे सप्ताह से नाश होने लगता है। इस प्रकार नाभ्य ऊतिनाश के कई क्षेत्र यकृत् में पाये जाते हैं। आन्त्रिकज्वर दण्डाणु के अनेकों समूह इतस्ततः यकृत् में मिलते हैं। इनका नाभ्य ऊति नाश के क्षेत्रों से प्रत्यक्ष कोई खास सम्बन्ध नहीं होता। यकृत् में मेघसमशोथ तथा स्नैहिकविहास भी पाया जाता है जैसा कि किसी तीव्र विषरक्तता के अन्तर्गत मिल सकता है । कूफ्फर के कोशाओं में भी परम पुष्टि पाई जाती है।
पित्ताशय-आन्त्रिक ज्वर में पित्ताशय को आन्त्रिकज्वर दण्डाणु रक्त के द्वारा पहुँचा करते हैं। रोग के आरम्भ से ही पित्ताशय में ये दण्डाणु उपस्थित रहते हैं पर तब उनके कोई महत्त्व के लक्षण यहाँ नहीं पाये जाते । कहते हैं कि रोग के शान्त होने के कुछ वर्ष बाद इनके कारण पित्ताशयपाक ( cholecystitis) और पित्ताश्मरी बनती हुई देखी गयी हैं। कभी-कभी पित्ताशय में तीव्रपाक आरम्भ हो जाता है। जब मोतीझरा का आक्रमण हलका होता है तो पित्ताशय कुछ काल बाद स्वस्थ हो जाता है पर ५ से १० प्रतिशत तक रोगियों में पित्ताशय आन्त्रिकज्वर दण्डाणुओं का
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