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यक्ष्मा
सूक्ष्म से सूक्ष्मतम यमिका जिसे हम देख पाते हैं तीन या चार महाकोशाओं द्वारा निर्मित होती है जिसका स्वरूप वैसा ही होता है जैसा हम ऊपर लिख चुके हैं । इस प्रकार जितनी भी नाभियाँ ( foci ) बनती हैं वे धूसर या श्यामाकसम यमिकाकों के नाम से पुकारी जाती हैं। वे आधूसर ( greyish ), अर्द्धपारदर्श, गोलीय पिण्डकाएँ होती हैं जिनकी आकृति एक बिन्दु से लेकर एक आलपिन ( अन्धसूची) शीर्ष के बराबर या कुछ बड़ी होती हैं। ये यदिमकाएँ दृढ, गोलिकासम (shotty) स्पष्टतः परिलिखित ( distinctly circumscribed ) होती हैं तथा जब ऊति को काटा जाता है तो उसके धरातल पर कुछ उठे हुए ( projected - प्रक्षिप्त ) भाग दिखाई देते हैं ।
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पीतयदिमका - इस नाम से भी कुछ यचिमकाएँ पुकारी जाती हैं। ऊपर वर्णित यमिकाओं से कुछ बड़ी, कम सन्तत ( less regular ), अप्रगल्भ less closely defined ) तथा कुछ सौम्य यदिमकाओं को जिनमें किलाटीयन प्रक्रिया चल पड़ी हो पीत यमिकाओं ( yellow tubercles ) के नाम से पुकारा जाता है । कई छोटी-छोटी धूसर यदिमकाएँ मिल कर जो पास-पास बनती हैं और साथ-साथ ही अपना एवं समीपस्थ ऊति का किलाटीयन करके जो एक दीर्घपुंज ( large mass ) बनता है वह भी पीतयमिका या संपिडन यक्ष्मिका ( conglomerate tubercle ) कहा जाता है | किलाटीयन के कारण इनका वर्ण पीत हो जाता है । पर पीत वर्ण के चारों ओर एक संकीर्ण श्लिषीय ( gelatinous ) कटिबन्ध धूसर यक्ष्मिकाओं का भी देखने को मिलता है । ये धूसर यमिका किलाटीय नाभि से समीपस्थ ऊतियों मैं विकिरित ( radiating ) देखी जाती हैं । जो इसको पुष्ट करती हैं कि केन्द्रिय पुंज से उपसर्ग समीपस्थ ऊतियों में जाकर नई यचिमकाएँ उत्पन्न कर रहा है और ज्यों-ज्यों यह पुंज बढ़ता जाता है वे यचिमकाएँ भी इसी केन्द्रिय पुंज के भाग के रूप में परिणत हो जाती हैं ।
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जैसा एक बार और कहा जा चुका है। अन्य व्रणशोथात्मक वितों और यक्ष्मविज्ञतों (यदिमकाओं ) में एक बड़ा अन्तर यह होता है कि जहाँ प्रथम में पर्याप्त रक्त होता है वहाँ दूसरों में रक्तवाहिनियों का पूर्णतः अभाव होता है । यदिमकाओं की ओर यदि कोई वाहिनी जाती भी है तो या तो उसका मुख घनास्रोत्कर्ष के कारण बन्द हो जाता है या उसके अन्तश्छद में प्रक्षोभजन्य परमचय ( अतिघटन ) होने से अन्तश्छद का विनाश होकर अभिलोपी अन्तश्छदीयपाक हो जाता है । इसमें कोई रक्तवाहिनी बनती नहीं तथा अधिरक्तता नामक घटना इसके अन्दर कभी देखी नहीं जाती । हाँ, यदि रोगाक्रमण अतितीव्र हुआ तो यदिमकाओं के परिणाह (periphery ) पर कुछ अधिरक्तता मिल सकती है । रक्तवाहिनियों का जैसे मुख बन्द हो जाता है ठीक उसी प्रकार कुछ-कुछ लसवहाओं का मुख भी निचूषित ( occluded ) हो जाता है ।