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विकृतिविज्ञान
वर्ष दो वर्ष बाद भी यह देखा जा सकता है । जीर्णपर्यस्थ विद्रधि भी देखी जा सकती है ।
रक्त - आन्त्रिकज्वर का विष रक्तोत्पादक अङ्गों को अत्यधिक हानि पहुँचाता है लसाभ ऊति उसका विशेषतया शिकार बनती है । इसके परिणामस्वरूप सितकोशाओं की संख्या कम होती जाती है ज्यों-ज्यों रोग की भयङ्करता बढ़ती जाती है यह संख्या भी घटती जाती है यहाँ तक कि अति तीव्र मन्थरज्वर में प्रतिघन मिलीमीटर २००० से भी कम हो जा सकती है । उनके सापेक्ष गणन में भी अन्तर आ जाता है । बहुन्यष्टि कोशा ५० प्रतिशत तक घट जाते हैं लसकोशा ५० प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं । रोगारम्भ काल में तो अवश्य जीवाणुरक्तता कुछ पाई जाती है और प्रथम सप्ताह के रक्त में रक्तसंवर्ध करने पर मन्थरज्वर के जीवाणु मिल भी जाते हैं पर आगे चलकर कितना ही संवर्ध किया जावे जीवाणु नहीं मिल पाते । डा० घाणेकर का कथन है कि जबतक ज्वर आरोही स्वरूप का रहता है रक्त मन्थरज्वर दण्डाणुओं से युक्त होता है । द्वितीय सप्ताह आरम्भ होते होते रक्त प्रतियोगी पदार्थों की उत्पत्ति आरम्भ हो जाती है । इन पदार्थों में अभिश्लेषि का मुख्य महत्त्व होता है । इसी अभिश्लेषि पर विडाल की अभिश्लेषण कसौटी निर्भर करती है । रक्त में उपसिप्रिय सितकर्णी का सर्वथा अभाव हो जाता है ।
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१२-अपरतन्द्राभज्वर या पानीझरा ( Paratyphoid fever ) - इस ज्वर का उत्पादक एक प्रकार का जीवाणु है जिसे बैसीलस पैराटाइफोसस या अपरतन्द्राभ sir कहा जाता है । मन्थरज्वर की भांति इसमें भी आँतों की लसाभ ऊति, सग्रन्थियाँ, प्लीहा, हृदय आदि अंगों में विकृति हो जा सकती है । यह विकृति मन्थरज्वर के बराबर उग्र नहीं हुआ करती । यह गहरा न जाकर ऊपर अधिक फैलता है । आरम्भ में इसके लक्षण मन्थर या आन्त्रिकज्वर की अपेक्षा अधिक तीव्र हो सकते हैं वमन और अतीसार के साथ भी रोगारम्भ हो सकता है । मन्थर की अपेक्षा इसमें स्थूलान्त्र अधिक प्रभावित होती है । इसमें रक्तस्राव अथवा छिद्रोदर की प्रवृत्ति कम मिलती है । इस रोग में सितकणापकर्ष न होकर सितकोशोत्कर्ष होता है इस कारण अन्य अंगों में विद्रधियों की उत्पत्ति की आशंका रहती है । यकृत् में ऐसी द्वितीयक विद्रधियाँ इस रोग में बनती हुई पाई गई हैं ।
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इस रोग का उत्पादक जीवाणु ३ प्रकार का होता है उसे वैज्ञानिकों ने ए. बी. सी. करके तीन रूपों में स्वीकार भी किया है । लाक्षणिक दृष्टि से इस रोग के तीन रूप देखे जाते हैं । एक जिसमें अतीसाराधिक्य पाया जाता है । दूसरा जो प्रतिश्यायातिरेक से युक्त होता है और तीसरा जो वृक्कपाकसमेत आता है । वृकपाकसमेत विकार में वृक्कपूयता ( pyelitis ) अथवा बस्तिपाक ( cystitis ) पाई जाती है । प्रतिश्यायात्मक रोग में श्वसनकीय लक्षण अधिक मिलते हैं । यह स्मरणीय है कि इस रोग के विक्षतों के उपशमन में तन्तूत्कर्ष और व्रणवस्तूत्पत्ति मन्थर की अपेक्षा अधिक होती है ।
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