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विकृतिविज्ञान
कहकर पुकारते हैं । जब रस से रक्त, रक्त से मांस और इसी प्रकार धातुनाश होता है तो इसे अनुलोमक्षय कहते हैं तथा जब वीर्य, ओज या स्नेह का संक्षय होता है। तो शुक्र से मज्जा, मज्जा से अस्थि, अस्थि से मेद आदि का क्षय देखा जाता है यह प्रतिलोम क्षय है । पहले राजा लोग अधिक व्यसनी होते थे और उनमें शुक्रक्षय होकर प्रतिलोमक्षय अधिकतर देखा जाता था । आजकल इस रोग के फैलने के अन्य अनेक हेतुओं में जनसंख्या बहुलता व्यसनाधिक्य तथा भुखमरी सभी बढ़े हुए हैं । इस कारण एक ही व्यक्ति को अनुलोम और प्रतिलोमक्षय एक साथ भी होती हुई देखी जा सकती है |
यक्ष्मा सभ्य जातियों का रोग आजकल माना जाता है और उन नगरों में अधिक 'देखा जाता है जहाँ की जनसंख्या अत्यधिक होती है । उत्तरप्रदेश में कानपुर एक ऐसा ही नगर है जो यक्ष्मा के लिए पर्याप्त प्रसिद्ध है । सांख्यिकी के विद्वानों का मत "है कि प्रत्येक नगर की १० से लेकर २० प्रतिशत जनता इस रोग की प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष शिकार बनी रहती है । भारतीय नगरों और उपनगरों में यह रोग जिस द्रुतगति से प्रसारित होता जा रहा है वह अतीव भयानक है । इस रोग के उपसर्ग से केवल जंगली जातियाँ अथवा पर्वतस्थ जनसमुदाय ही भले बचे हों अन्यथा तो प्रायः सभी को इसका स्पर्श हो जाता है। जिन समुदायों में यह रोग छू तक नहीं गया यदि वहाँ किसी प्रकार यह रोग पहुँच जावे तो उनमें यह ऐसे फैलता है जैसे फँस में अग्नि । क्योंकि जहाँ यह रोग प्रायशः रहता है उन स्थानों के निवासियों में इसके विरोध में प्रतीकारिता शक्ति का निर्माण हो जाता है पर यह प्रतीकारिताशक्ति ( immunity ) उन समुदायों में अनुपस्थित रहती है इसी कारण रोग प्रसार इतने अधिक वेगपूर्वक देखा जाता है ।
सब प्रजातियों पर यक्ष्मा का एक सा प्रभाव नहीं होता । अश्वेतवर्णीय प्रजातियों ( black races ) पर यक्ष्मा का जितना अधिक कोप देखा जाता है उतना श्वेतप्रजातियों पर नहीं होता । जितनी ही कोई प्रजाति इसके प्रति अधिक अनुह ( susceptible ) होती है उतनी अल्पवय में उस प्रजाति में रोगियों में इसका उपसर्ग लग जावेगा और मृत्यु हो जावेगी ।
यचमकवकवेन्राणु ( mycobacterium tuberculosis ) की खोज कौक ने की थी और उस सम्बन्ध के प्रपत्र १८८४ ई० में प्रकाशित किए गये थे । इस दण्डाणु या कवकवेन्त्राणु को कई समजनि ( strains ) होते हैं । उनमें संरचनादृष्ट्या कितनी ही विभिन्नता देखी जा सकती है । उनमें कुछ हस्व, स्थूल और ऋजु होते हैं तथा अन्य दीर्घ, तनु तथा अन्जु होते हैं । कभी-कभी कुछ प्रादर्शों ( specimens ) कणयुक्त पिण्ड ( granular bodies) मिलती है जिसके कारण उनकी आकृति मणिमय. या मालासम ( beaded ) ऐमी अण्वीक्षण पर मिलती है । यमकवकवेत्राणु अचर ( nonmotile ), अबीजाण्विक ( non sporing ), सुपवाधाव्य ( gram positive ) और अम्लस्थिर ( acid fast ) होता है । उसे मधुरी, रक्तरस या
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