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विकृतिविज्ञान
nced ) हैं तो विस्थापिक नाभ्य उपसर्ग ( metastatic focal infections) अस्थियों, सन्धियों, केन्द्रिय वातनाडी संस्थान एवं मूत्रप्रजनन संस्थानादि भागों में हो जाते हैं।
प्राकृतिक मार्गों के द्वारा भी उपसर्ग का प्रसार होता हुआ देखा जाता है। जब कोई क्षयी साँस अन्दर को भरता हो उसी समय कोई यक्ष्म नाभि फट जाये तो उसके अन्दर का किलाटीय दूषित पदार्थ श्वसनिकाओं ( bronchi ) में चला जाता जिसके कारण एक साथ फुफ्फुस के अनेक भागों में किलाटीय श्वसनीफुफ्फुसपाक ( caseous broncho-pneumonia) होता हुआ देखा जाता है।
इसी प्रकार निगले हुए ठीव से आन्त्र, वृक्कों से अधोमूत्रमार्ग और जिह्वा के उपसर्ग से तालु ( palate ) उपसृष्ट हो सकते हैं।
अतिवेधन द्वारा ( by permeation ) यक्ष्मा का प्रसार प्रायशः होता है। प्रारम्भ में जो प्राथमिक नाभि (primary focus) बनता है वहाँ से यक्ष्मादण्डाणुओं को भक्षिकोशा उठा लेते हैं। वे भक्षिकोशा समीपस्थ ऊतियों में प्रवेश कर जाते हैं जहाँ उनका विहास होकर मृत्यु हो जाती है। वहाँ पर वे दण्डाणु बढ़ते हैं और एक यक्ष्मिका उत्पन्न कर देते हैं। यह यदिमका प्राथमिक नाभि के समीप ही होती है। दोनों यचिमकाएँ समीपता के कारण एक दूसरे से मिलकर बड़ा रूप धारण कर लेती हैं। इस प्रकार वह धीरे-धीरे बढ़ती रहती है और उसका किलाटीयन (caseation) होता रहता है।
औतिकीय प्रतिक्रिया यक्ष्मादण्डाणु के प्रति उतियों की प्रधान प्रतिक्रिया ( reaction ) का नाम जालकान्तश्छदीय कोशाओं का अतिघटन या परमचय ( hyperplasia ) है । और क्योंकि जालकान्तश्छदीय कोशा प्रत्येक ऊति में और शरीर के हर अंग में कुछ न कुछ मिलते हैं इस कारण प्रत्येक शरीराङ्ग में होने वाले यक्ष्म विक्षत सदैव एक से ही होते हैं।
यदि एक बार यक्ष्मादण्डाणु किसी स्थान पर सुरक्षापूर्वक स्थित हो जावे तो फिर वह अपना प्रगुणन तथा यक्ष्मिका ( tubercle ) का निर्माण करता है।
बोरिल ने शशक परीक्षणों द्वारा यह प्रगट किया है कि यक्ष्मादण्डाणुओं के प्रति जति प्रतिक्रिया वैसी ही होती हैं जैसी कि अन्य किसी रोगाणु के प्रति । अर्थात् यक्ष्मा. दण्डाणुओं के अन्तःक्षेपण के थोड़े समय पश्चात् ही उन्हें बहुन्यष्टि सितकोशा घेर लेते और अपने उदर में समा लेते हैं। पर इन विचारों की कोई शक्ति नहीं कि वे इनका विनाश करने में समर्थ हो सके इस कारण तीसरे दिन उपसृष्ट सितकोशा मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं और उनका विघटन होने लगता है। ___ उपरोक्त सितकोशीय प्रतिक्रिया यचममस्तिष्कछदपाक में बहुत स्पष्टरूप से दिखती है। क्योंकि वहाँ उत्पन्न विष को अत्यधिक मात्रा में उपस्थित मस्तिष्कोद मन्द ( dilute ) करता रहता है। वहाँ प्रारम्भ में मस्तिष्कोद में बहुन्यष्टिकोशा
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