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यमा
५०३ गर्भरक्त में अधिक संख्यक यक्ष्मादण्डाणु देखे गये हैं जब कि गर्भऊतियों में इनका कोई विक्षत नहीं मिल सका।
ग्रीन का कथन है कि क्षयपीडिता स्त्री के अपरा द्वारा यक्ष्मा के जीवाणु गमन तो कर सकते हैं पर वैसा देखा बहुत कम जाता है। जिस प्रकार विषाणु तथा फिरङ्गाणुओं के माता से गर्भ में जाने के प्रमाण मिलते हैं वैसे प्रमाण यक्ष्मादण्डाणुओं के विषय में उसे मिल नहीं सके हैं। __कामेट का दृष्टिकोण यह है कि अपरा पार कर यचमादण्डाणु जाते तो हैं परन्तु वे जब पाव्यस्वरूप ( filtrable form ) में होते हैं उसी समय पार कर पाते हैं अन्यथा नहीं। ___ अन्तर्रोपण द्वारा ( by inoculation ) भी कभी कभी यक्ष्मा का प्रसार हो सकता है। इस प्रकार का उपसर्ग वधाजीवियों ( butchers) को उस समय लगता है जब वे यक्ष्मा से उपसृष्ट मांस को काटते हों। डाक्टरों को तब लग सकता है जब यक्ष्मा के विक्षों का शस्त्रकर्म करने में उनके शरीर से उसका उपसर्ग लग जावे । नसों को तब होता है जब वे किसी क्षयी के ष्ठीवपात्र को उठा रही हों और बीच ही में वह टूट जावे। टूटने से उनके शरीर पर आघात हो जावे और उसमें छीव लग जावे । प्रयोगशालाओं के कार्यकर्ताओं को स्पर्शादि के कारण इस दण्डाणु का अन्तर्रोपण हो सकता है। मृत्यूत्तर परीक्षण (पोस्टमार्टम) काल में जो शवों पर कार्य करते हैं उन्हें भी यह लग सकता है। ___अन्तर्रोपण द्वारा जो यक्ष्मा उत्पन्न होता है वह बहुधा स्थानिक ( localised) होता है। किसी को यक्ष्मार्बुद ( tuberculoma) निकल आता है तो किसी को चर्मकील ( wart ) बन जाता है। वधाजीवियों को एक जीर्ण होने की प्रवृत्ति वाली ऐसी ही चर्मकील निकलती है जिसे 'बूचर का वार्ट' या वेरूका नेक्रोजेनिका (verruca necrogenica ) कहते हैं ।
अन्तर्रोपण द्वारा बहुधा जो उपसर्ग होता है वह बहुत घातक नहीं होता उससे फुफ्फुस या आन्त्र यक्ष्मा जैसी भयानक व्याधियां बहुत ही विरली देखी जाती हैं। इसका कारण डाक्टर धीरेन्द्रनाथ बनर्जी यह देते हैं कि यतः अत्यल्प प्रमाण में उपसर्ग शरीर में पहुँचता है और वह कई बार पहुँचता है इस कारण यक्ष्मा के प्रति प्रतीकारिता शक्ति का निर्माण होने लगता है जिससे यह रोग अधिक उग्ररूप में आक्रमण नहीं कर पाता।
उपरोक्त चार प्रवेश मार्गों के अतिरिक्त दो और भी मार्ग कहे गये हैं। इनमें एक रक्त द्वारा है । फुफ्फुस में जब कोई श्वसनिकालसग्रन्थि यक्ष्मा से प्रभावित हो जाती है तो वह समीपस्थ ऊतियों पर भी प्रभाव डालती है जिनमें रक्तवाहिनियाँ भी सम्मिलित होती हैं। यदि किसी प्रकार किसी रक्तवाहिनी का अपरदन हो जावे तो यक्ष्मा का किलाटीय पदार्थ रक्त में मिल जाता है और वह एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाया जाता है। जब कोई श्वसनिकीय ( bronchial ) धमनी इस प्रकार के
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